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जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

सम्बन्धी सारी अर्जियाँ शुक्रवारके दिन ही भेजी गई थीं। सरकारकी इस मेहरबानीके लिए किन्हीं प्रमुख एशियाइयोंने एहसान माना हो तो उनके नाम प्रकाशित किये जायें। इससे दूसरोंपर भी उसका असर पड़ेगा। हमारा खयाल है कि ऐसा आभार किसीने नहीं माना और प्रमुख तो विरोधपर दृढ़ ही हैं। उनका यह भी कहना है कि सरकारको देश-निकाला देनेका अधिकार है ही नहीं। वे अपने समर्थनमें श्री लेनकी राय पेश करते हैं।

इसके अतिरिक्त, श्री रेमंड वेस्ट जैसे योग्य व्यक्ति भी मानते हैं कि कानून ब्रिटिश नीतिके विपरीत है। सरकार यदि प्रवासी अधिनियमपर भरोसा रखती हो तो क्या वह मानती है कि भारतीय समाज उस कानूनको सम्राट्की न्याय परिषद तक नहीं ले जायेगा? फिर, यदि सरकारको निर्वासित करनेकी सत्ता मिल जाये तो उस सत्ताके बलपर उसे भारतीयोंको भारतमें भेज देना चाहिए। ऐसा होगा तो क्या भारत सरकार उसमें हस्तक्षेप नहीं करेगी? मोटे तौरसे देखें तो मालूम होता है कि श्री हॉस्केनके सिवा सभी गोरे भारतीयोंके विरुद्ध हैं। किन्तु गहराईसे देखनेपर मालूम होता है कि एशियाइयोंको निकाल भगानेका सरल रास्ता गोरे ग्रहण नहीं करते। यदि वे भारतीयोंसे व्यवहार बन्द कर दें, तो भारतीय कैसे रह सकते हैं? भारतीय नौकर पंजीयनपत्र लें या न लें, इसपर उनके गोरे मालिक कोई आपत्ति नहीं करते। कोई यह नहीं कह सकता कि भारतीयोंका विरोध सामान्य गोरे करते हैं। अतः वास्तविक स्थिति प्रेक्षकको एकदम मालूम नहीं हो सकती। यह सवाल बड़ा उलझन-भरा जान पड़ता है। इसलिए यदि इसपर फिरसे विचार करना आवश्यक हो तो सभी बड़े लोगोंको निष्पक्ष तरीकेसे विचार करना चाहिए। जनरल स्मट्स और श्री गांधीको एक बहुत ही कठिन प्रश्नका हल खोजना है। मुसाफिरीकी सुविधाओं के बारेमें पूर्व और पश्चिमके सम्बन्धों में बहुत ही परिवर्तन हुआ है। एशियाई जो पहले यात्राएँ नहीं करते थे अब निकलने लगे हैं। वे मितव्ययी और विनयी हैं। वे इतनी सादगीसे रहते हैं कि उतनी सादगी यूरोपीयोंसे नहीं निभ सकती। हम उनके देशमें जाते हैं। किन्तु उनके हजारोंकी जगह हमारे जानेवाले लोग अँगुलियोंपर गिने जा सकते हैं। और जब उनका वश चलता है, वे उन्हें जानेसे रोकते हैं। किन्तु एशियाई स्वयं स्वीकार करते हैं कि ट्रान्सवालमें भारतीयोंको बे-रोकटोक नहीं आने देना चाहिए। यहाँके गोरे स्वीकार करते हैं कि जो भारतीय यहाँ आ गये हैं और हकदार हैं, उनके साथ न्याय होना चाहिए। अतः यह प्रश्न रहता है कि दूसरोंको आनेसे किस प्रकार रोका जाये। एशियाइयोंका कहना है कि सरकारने जो तरीका निकाला है वह अनुचित और हलके दर्जेका है। क्या सरकारने सभी तरीके आजमा कर देख लिये हैं? हस्ताक्षरोंसे, फोटोसे, या ऐसे ही तरीकोंसे काम नहीं चलेगा? भारतीय तौर-तरीके समझनेवालोंके साथ सरकारने मशविरा किया है? यदि सरकारको मदद चाहिए तो बहुत लोग मदद करेंगे। यदि उठाये हुए कदम वापस लेने पड़ें तो हमें आशा है कि सरकार प्रतिष्ठाका खयाल करके आगा-पीछा नहीं करेगी। यूरोपीय और अधिक एशियाइयोंको आने से रोकना चाहते हैं; किन्तु साथ ही यह भी चाहते हैं कि ट्रान्सवाल ब्रिटिश राज्यका अंग है, इसे न भूला जाये। सरकारको हमारी परम्परासे चली आ रही न्यायीकी न्याय-बुद्धिको कायम रखना चाहिए। यदि सरकार