किन्तु जोहानिसबर्ग में दफ्तर खुलनेपर समाजका रुख कैसा रहता है, यह देखने के लिए आजतक इसे भेजना स्थगित रखा गया था।
इसपर कुल ४,५२२ हस्ताक्षर हुए हैं। वे इस प्रकार कुल २९ स्थानोंसे लिये गये हैं: जोहानिसबर्ग, २,०८५; न्यू क्लेअर, १०८; रुडीपूर्ट, १३६; क्रूगर्सडॉर्प, १७९; जर्मिस्टन, ३००; बॉक्सवर्ग, १२९; बेनोनी, ९१; मॉडरफॉटीन, ५१; प्रिटोरिया, ५७७; पीटर्सबर्ग तथा स्पेलोनकेन ८०; वेरिनिगिंग, ७३; हाइडेलबर्ग, ६६; बालफर, १४; स्टैंडर्टन, १२३; फोक्सरस्ट, ३६, वाकस्ट्रम १२, पीट रिटीफ, ३; बेथल, १८; मिडेलवर्ग, २९, बेलफास्ट, मेकाडोडॉर्प तथा बाटरवॉल, २१, बारबर्टन, ६८; पॉचेफ्स्ट्रम, ११४; विंटरडॉर्प, १२; क्लार्क्सडॉर्प, ४१; क्रिस्चियाना, २४; लिखतनबर्ग, ७; जीरस्ट और मेरीको, ५९; रस्टेनबर्ग, ५४; तथा अरमेलो, २।
वर्गके अनुसार हस्ताक्षर निम्नानुसार हैं: सूरती, १,४७६; कोंकणी १४१; मेमन १४०; गुजराती हिन्दू, १,६००; मद्रासी, ९९१; कलकतियाके नामसे परिचित (उत्तर भारतीय), १५७; पारसी, १७। सिक्ख और पठानोंमेंसे हिन्दुओंके हस्ताक्षर गुजराती हिन्दुओंके साथ गिने गये हैं तथा मुसलमानोंके हस्ताक्षर सूरतियोंके साथ गिने गये हैं। ऊपर ईसाइयोंका अलग वर्ग नहीं बताया गया। वे लगभग २०० हैं और मद्रासियोंके साथ गिने गये हैं।
मेमन लोगोंको छोड़कर शायद ही कोई कौम ऐसी बची हो, जिसने हस्ताक्षर न किये हों। एक तो समय बहुत कम था और दूसरे, भारतीय सारे ट्रान्सवालके फार्मोमें कुछ एकमें, कुछ दूसरे फार्ममें फैले हुए हैं; इसलिए संघ के कार्यकर्ता हस्ताक्षरके लिए बहुत लोगोंके पास पहुँच ही नहीं सके। हस्ताक्षर कराने वाले सभी इज्जतदार व्यक्ति थे। उन्होंने बताया है कि बहुत जगहोंसे लोग यह देश छोड़कर भारतको रवाना हो गये हैं। सितम्बर १९०६ को लड़ाई शुरू हुई तब १३,००० भारतीय अनुमतिपत्र थे। संघको मालूम हुआ है कि गुलाम बननेके बजाय देश छोड़ना ठीक समझनेके कारण इस समय ७-८ हजार बच रहे होंगे। बहुत करके तो ७,००० से बहुत ज्यादा न होंगे। मेमन लोगोंके अलावा जितने भी लोगोंने पंजीयन करवाया है, उनमें बहुतेरोंपर गोरे मालिकोंने दबाव डाला था। संघको खबर मिली है कि १ जुलाईसे ३१ अक्तूबर तक ३५० से अधिक लोगोंने अर्जियाँ नहीं दीं और उन अर्जी देनेवालोंमें ९५ प्रतिशत मेमन हैं।
एशियाई कानूनके खिलाफ भारतीयोंमें कितनी कटुता पैदा हुई है, उसकी ओर, आखिरमें, मेरा संघ आपका ध्यान आकर्षित करता है। भारतीय समाजने जो रुख ग्रहण किया है, वह सरकारको परेशान करनेके लिए नहीं, बल्कि उसे जो कष्ट हुआ है उसके सबूतके रूपमें है। कानूनसे भारतीयोंको इतनी तीव्र चोट लगी है कि वे उसके सामने झुकनेके बजाय अनाक्रामक प्रतिरोध करके कष्ट सहनेको तैयार हो गये हैं।
इंडियन ओपिनियन, ९-११-१९०७