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२७६. पत्र: 'इंडियन ओपिनियन' को[१]

जोहानिसबर्ग
नवम्बर १५, १९०७

सेवामें

सम्पादक

'इंडियन ओपिनियन'
महोदय,

क्या आप मुझे रामसुन्दर पण्डितके[२] मुकदमेके सिलसिलेमें सामने आये कुछ बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथ्योंको जनताके ध्यानमें लानेकी इजाजत देनेकी कृपा करेंगे?

एशियाई पंजीयकने स्वीकार किया कि यह उसके कार्यालयका नियम है कि पुरोहितोंको अस्थायी अनुमतिपत्र ही दिये जायें, लेकिन साथ ही यह मूक समझौता भी है कि जबतक वे अपनेको पुरोहिताई तक ही सीमित रखते हैं तबतक अनुमतित्रोंकी अवधि, पंजीयकके शब्दोंमें, "जीवनके अन्ततक बढ़ाई जा सकती है।" आगे उसने यह बताया कि हिन्दू पुरोहितने पुरोहिताईके अतिरिक्त कुछ और काम भी शुरू कर दिया, इसलिए पंजीयकके विचारमें वह अवधि बढ़वानेके अधिकारका पात्र नहीं रह गया। बड़ी मुश्किलसे मैं समझ पाया कि इस "कुछ और" में पुरोहित द्वारा एशियाई अधिनियमके विरुद्ध प्रचार भी शामिल था। उसकी अन्य "कुचालों" का भी एक धुँधला-सा हवाला दिया गया, लेकिन पंजीयकने शिकायतोंके स्वरूप तथा शिकायत करनेवालोंके नाम बतानेसे साफ इनकार कर दिया। उसने यह स्वीकार किया कि पुरोहितको अपने निन्दकोंका मुकाबला करने या उनकी शिकायतोंका जवाब देनेका मौका कभी नहीं दिया गया। दूसरे शब्दोंमें, उसकी बात सुने बिना ही उसे सजा दे दी गई। युद्धकालके अलावा ऐसे किसी मनमाने, अनुचित तथा अन्यायपूर्ण कार्यका उदाहरण मुझे नहीं मिलता। इस कानूनके अन्तर्गत एक ऐसे व्यक्तिको, जो—जैसा कि उसने गवाहीके कठघरे में खड़े होकर स्वीकार किया—उक्त कानूनके विषयमें कुछ नहीं जानता और फलतः गवाहीको तोल सकनेमें सर्वथा असमर्थ है तथा जिसे राजद्रोह और वैयक्तिक स्वतन्त्रतापर चोट करनेवाले कानून-विशेषके सादर तथा वीरतापूर्ण विरोधमें कोई फर्क नहीं दिखाई देता, स्वतन्त्र तथा निरीह ब्रिटिश प्रजाजनोंपर असीम सत्ता प्राप्त है। वह किन शर्तोंपर धर्म प्रचारकोंको इस देश में रहने देगा, यह उसकी मर्जीपर निर्भर है; और अगर कहीं वह उनसे नाराज हो गया तो उसे अधिकार है कि वह लगभग तत्काल मन्दिरोंको बन्द कर सम्बन्धित समुदायोंको धार्मिक समाधानसे वंचित कर दे।

और फिर भी एशियाइयोंसे प्रायः पूछा जाता है कि वे एक इतने सीधे-सादे कानूनका, जिसका एकमात्र उद्देश्य उपनिवेशमें रहनेवालोंकी पहचान करना है, विरोध क्यों करते हैं।

श्री लिअंग क्विनने जनताका ध्यान एक शोकजनक घटनाकी ओर आकर्षित किया है। बृहस्पतिवारको जर्मिस्टनमें जो कुछ हुआ वह इतना भारी काण्ड था कि मजिस्ट्रेटको कहना

  1. इस पत्रका गुजराती अनुवाद २३-११-१९०७ के इंडियन ओपिनियनमें छपा था।
  2. देखिए पृष्ठ ३५२-५६।