कहाँसे? यह जमीन और ऊपरका आकाश दोनों तो शुरूसे ही हैं। इसके स्वामी पहले हिन्दू थे। बादमें मुसलमान आकर बस गये। हम हिन्दू और मुसलमान उन दोनोंके उत्तराधिकारी हैं। तब सरकार हमें बताये कि वह इस जमीनको कैसे छीन सकती है। यह जमीन खुदाकी है। उसने हमें दी है। उसपर [शासन करनेवाला] बादशाह भले हो, परन्तु वह किसी बादशाहके नौकरकी नहीं है। ऊँची तनख्वाह लेनेवाले अधिकारी हमारे राजा नहीं, बल्कि नौकर हैं। वे हमारा नमक खाते हैं।
हम सोते हुए सिंहके समान हैं। नींदमें देखकर कोई हमारी पूँछ खींचता है, कोई हमपर थूकता है, किन्तु यदि हम अपना रुतवा जानते हों तो हमें कोई नहीं सता सकता। हमारे दुश्मन हिन्दू-मुसलमानके बीच बैर करवाना चाहते हैं; सिक्ख और हिन्दुओंके बीच दरार डालना चाहते हैं। उनका बड़े से बड़ा हथियार है हमारे बीच फिसाद बनाये रखना। प्रत्येक वस्तुमें अपना-अपना गुण रहता है। पानी बुझाता है। आग जलाती है। इसी प्रकार विदेशी शासकोंका गुण हममें फूट डालकर हमपर अपनी सत्ता कायम रखना है। हमारा गुण यह होना चाहिए कि हम उनके इस हेतुको असफल कर दें। हमारा कर्तव्य यह है कि हममें यदि कोई देशद्रोही हो तो उसको समाजसे निकाल दिया जाये। हमें वाइसरायके पास जाना चाहिए। इंग्लैंड जाना भी ठीक होगा। और यदि हम सच्चे हृदयसे मान लें कि अधिकारकी लड़ाईमें हमारे लिए मरना और जीना दोनों एक समान हैं, तो अधिकारी लोग तुरन्त कह देंगे, "हाँ, यह भूमि तो आपकी ही है।"
इस दर्दका दूसरा कोई इलाज है ही नहीं। हम संगठित बनें और रहें, यही है। यदि सरकार किसीकी जमीन छीनकर जमीनका नया कानून स्वीकार करनेवाले व्यक्तिको देना चाहे, और कानूनको स्वीकार करके जमीन लेनेवाला वह व्यक्ति हममें से ही कोई हो, तो उसे हम समाजका दुश्मन तथा दगाबाज समझें। सरकार यदि किसीकी जमीन छीनती है, तो दूसरोंके लिए यह शपथ लेना जरूरी है कि वे उस जमीनको नहीं लेंगे। हम मर्द बनें, औरत नहीं। यदि आप अपनी शपथपर डटे रहेंगे तो आपको अर्जियाँ नहीं देनी पड़ेंगी। जब आप अपने शास्त्रों अथवा कुरान-शरीफकी शपथ लेंगे और आपसमें एक-दूसरेके प्रति वफादार रहेंगे तब इस दुनियामें ऐसा कोई नहीं जो आपका अपमान कर सके।
भारतकी भूमि हिन्दूके लिए स्वर्ग है, मुसलमानके लिए बहिश्त है। हम करोड़ों मन अनाज पैदा करते हैं। फिर भी भारतकी सात करोड़ सन्तान हमेशा भूखी रहती है।
इस रोगका सर्वोत्तम उपाय यह है कि हम अपनी प्रतिष्ठाकी रक्षा करें। हजारों मनुष्य प्लेगसे सदा मरते हैं, किन्तु सच्ची मौत वह मरता है जो औरोंके लिए अपनी जान देता है, फिर भले वह जेलमें दे या बाहर दे।
लालाजीने मांडलेसे जो पत्र लिखा है वह हम आगामी सप्ताह में प्रकाशित करेंगे। वह जानने योग्य है। अपने पाठकोंसे हमारा अनुरोध है कि वे उपर्युक्त लेखको बार-बार पढ़ें तथा अपनी दक्षिण आफ्रिकाकी स्थितिपर इसे लागू करें।
इंडियन ओपिनियन, १६-११-१९०७