२९३. पत्र: 'ट्रान्सवाल लीडर' को
[जोहानिसबर्ग
नवम्बर २३, १९०७ के पूर्व]
'ट्रान्सवाल लीडर'
मुझे अपने साथी पुरोहित रामसुन्दर पण्डितके मुकदमेमें उपस्थित होनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। एक खयाल मेरे दिमागमें जोरसे आया कि ट्रान्सवालके कानूनोंमें जरूर ही कोई बुनियादी खराबी है। जैसा कि अब हर कोई जानता है, मैंने इमाम कमालीकी उस कार्रवाईसे, जिसे मैंने कुरानकी हिदायतके खिलाफ समझा, गुस्सा होकर उसको पीटा था। मुझे इसपर ५ पौंड जुर्मानेकी या कैदकी सजा दी गई। एक बेरहम दोस्तने, जो अपनी शराफतकी वजहसे अपनेको मेरा शागिर्द बताता है, जुर्माना दे दिया और मैं जेलसे बच गया। मैंने फिर मुहम्मद शहाबुद्दीनको पीटा, जिसने अपने बयानमें मंजूर किया कि उसने अपनी कुरानकी कसम तोड़ी है और यह कहा कि उसको पीटनेमें मेरा खयाल वैसा ही था जैसा बापका बेटेके लिए होता है। इसलिए मुझे मेहरबान अदालतने यह चेतावनी देकर छोड़ दिया कि मुझे किसी भी वक्त सजाके लिए बुलाया जा सकता है।
रामसुन्दर पण्डितने, जहाँतक मैं जानता हूँ, और मैं उनके बारेमें कुछ जानता हूँ, कभी किसीको नहीं पीटा; फिर भी उनको एक महीनेकी कैदकी सजा दे दी गई, क्योंकि उनके पास—एक ब्रिटिश प्रजाके पास—कागजका वह टुकड़ा न था जिसमें उनको एक ब्रिटिश उपनिवेशमें अपने देशभाइयोंकी धार्मिक आवश्यकताएँ पूरी करनेका अधिकार दिया गया होता।
मैंने हमेशा जैसा समझा है उसके मुताबिक यदि कोई आदमी जेलके लायक था तो वह मैं था, और फिर भी किसीके लिए यह सम्भव हो सका कि वह मेरे लिए उस चीजको खरीद ले जो उसकी नजरोंमें मेरी आजादी थी, जब कि रामसुन्दर पण्डितको लाजिमी तौरपर एक महीने के लिए उन लोगोंके संसर्गसे, जिनसे उन्हें हर रोज मिलने की आदत थी, लगभग बिलकुल अलग कर दिया गया और उनके धार्मिक कामसे उनका सम्बन्ध तोड़ दिया गया। इस खयालसे मैं बिलकुल कांप उठता हूँ। मैं महसूस करता हूँ कि मैं जेलमें हूँ और रामसुन्दर पण्डित आजाद हैं। खुदा उनको चैन और हिम्मत दे।
[आपका, आदि,
मुहम्मद शाह]
इंडियन ओपिनियन, २३-११-१९०७