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२९८.जोहानिसबर्ग की चिट्ठी
रामसुन्दर पण्डितका मुकदमा

एक प्रश्न उठाया गया है कि यह मुकदमा नये कानूनके अन्तर्गत चलाया गया था या पुरानेके अन्तर्गत। किन्तु इसका हल आसानीसे हो सकता है। उनके सम्मन्समें ही नये कानूनकी १७ वीं उपधाराका उल्लेख था; और यदि वह उपधारा लागू नहीं होती तो पण्डितजी का बचाव अन्य तरीकेसे किया जा सकता था। इसके अलावा, इस "चिट्ठी" के पाठक जानते हैं कि पण्डितजीने अपने पत्रमें बताया था कि नये कानूनके अन्तर्गत वे मीयादी अनुमतिपत्र भी नहीं ले सकते। अतः मेरी रायमें यह मुकदमा नये कानूनके अन्तर्गत ही नहीं है। यही नहीं, यह हमें बहुत दृढ़ करनेवाला भी है। क्योंकि इसमें कानूनकी बहुत-सी दलीलोंका समावेश हो गया है; इसमें धर्मपर हमला हुआ है। इसके अलावा, यह भी जाहिर हो गया है कि अनुमतिपत्रकी अवधि न बढ़ानेका कारण कितनी बेहूदगीसे भरा हुआ था। और चाहे जो कहें, पण्डितजी एक नेता माने जाते हैं; इसलिए नेतापर हाथ डाला गया है। फिर, वे धर्मगुरु हैं, इसलिए किसीके बीचमें आनेवाले आदमी नहीं हैं। इन सारी बातोंको देखते हुए साफ है कि यह मामला बहुत ही सबल है। गोरोंके मनपर भी ऐसी ही छाप पड़ी है।

'प्रिटोरिया न्यूज़' की टीका

इसपर टीका करते हुए 'प्रिटोरिया न्यूज़' लिखता है:[१]

पण्डितजीके अनुमतिपत्रकी मियाद न बढ़ाने तथा उसके द्वारा हिन्दुओंको धर्मगुरुसे वंचित करने में सरकारने कोई बुद्धिमानी नहीं बरती। सारी हकीकतको देखते हुए यदि श्री स्मट्स अपनी धमकीको पूरा करना चाहते हों तो भारतीय कौमको अपने धर्मगुरुओंकी जरूरत पड़ेगी। हमें लगता है कि सरकारने भूल की है। लोगोंको दुःखी करना ठीक नहीं है। आज श्री पण्डितको दुःख पाया हुआ कहा जा सकता है। उनका खयाल है कि उन्होंने जो किया है, वह उचित है। उनके सभी भाई उनका स्वागत करते हैं। ऐसा करने में सरकारको क्या लाभ हुआ, यह हमारी समझमें नहीं आता।

अब हमने देखा है कि पण्डितजीके मुकदमेसे गोरोंकी सहानुभूति भी भारतीयोंकी ओर खिंची है। वह मुकदमा इतना महत्वपूर्ण माना गया है कि यहाँके अखबारोंने उसे बहुत जगह दी है।

विशेष सहानुभूति

श्री फिलिप्स जोहानिसबर्ग के प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। वे स्वयं पादरी हैं और पादरी समाजके प्रमुख हैं। उन्होंने अखबारमें एक पत्र लिखा है। वह जानने योग्य है। उन्होंने भारतीयोंकी स्वेच्छया पंजीयन करवाने की बातको स्वीकार किया है और सरकारसे स्वीकार करनेकी सिफारिश की है। वह पत्र हमने दूसरी जगह दिया है।[२]

  1. मूल अंग्रेजी टीका २३-११-१९०७ के इंडियन ओपिनियनमें उद्धृत की गई थी।
  2. यहाँ नहीं दिया जा रहा है।