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३००. प्रार्थनापत्र: गायकवाड़को[१]

[जोहानिसबर्ग]
नवम्बर २५, १९०७

सेवामें
महाविभव गायकवाड़ [बड़ौदा]

१. आपके प्रार्थी महाविभवकी प्रजा हैं और ईमानदारीसे कमाने-खाने के लिए ट्रान्सवालमें आकर बसे हैं।

२. ट्रान्सवालमें आपके प्रार्थियोंमें से अधिकतरके बड़े-बड़े हित दाँवपर चढ़े हैं।

३. आपके प्रार्थी आप महाविभवका ध्यान ट्रान्सवाल संसद द्वारा पास किये गये एशियाई कानून संशोधन अधिनियमकी ओर सादर आकर्षित करते हैं।

४. आपके प्रार्थी, जैसा कि कदाचित् महाविभवको विदित होगा, रक्षित ब्रिटिश प्रजाके रूपमें, ट्रान्सवालके अन्य ब्रिटिश भारतीयोंके साथ मिलकर, साम्राज्य सरकारको निवेदन भेज चुके हैं।

५. आपके प्रार्थी इसके साथ उस प्रार्थनापत्रकी एक प्रति संलग्न कर रहे हैं जो उन्होंने परममाननीय उपनिवेश मन्त्रीको इस अधिनियमके सम्बन्धमें भेजा है और जिसमें सब आपत्तियोंका विवरण दिया गया है।

६. चूँकि साम्राज्य-सरकारने हस्तक्षेप करनेसे स्पष्ट इनकार कर दिया है और चूँकि उक्त कानून असामान्य रूपसे तिरस्कारपूर्ण और अपमानजनक है, तथा चूँकि प्रार्थी एक गम्भीर शपथसे इस अधिनियमको न माननेके लिए बँधे हुए हैं, इसलिए उन्होंने अनाक्रामक प्रतिरोधके नामसे ज्ञात धर्मयुद्ध छेड़ दिया है और अपने सर्वस्वको दाँवपर चढ़ा दिया है। स्थानीय सरकारने जेल भेजने, निर्वासित करने और अन्य सजाएँ देनेकी धमकी दी है, जिनमें सभी, आपके प्राथियोंके विचारमें, उक्त अधिनियमके जुएकी तुलनामें सह्य और झेल लेने योग्य हैं।

७. आपके प्राथियोंकी विनीत सम्मतिमें आप महाविभवकी सहानुभूति और सक्रिय हस्तक्षेपसे साम्राज्य सरकारको, और भारत सरकारको भी, बल मिलेगा तथा प्राथियोंको बहुत हिम्मत बँधेगी।

८. इसलिए आपके प्रार्थी सादर विश्वास करते हैं कि श्रीमान उनको किसी भी वाञ्छनीय तरीकेसे अपना संरक्षण प्रदान करेंगे; और न्याय तथा दयाके इस कार्यके लिए प्रार्थी कर्तव्य मानकर सदा दुआ करेंगे, आदि।

[अंग्रेजीसे]
कलोनियल ऑफिस रेकर्ड्स: सी॰ ओ॰ २९१/१२२
  1. यह "महाविभव गायकवाड़की…ट्रान्सवालवासी प्रजाने" भेजा था, और ३०-११-१९०७ के इंडियन ओपिनियनमें प्रकाशित किया गया था। इस प्रार्थनापत्रकी एक प्रति श्री एल॰ डब्ल्यू॰ रिचने २३ दिसम्बर १९०७ को उपनिवेश-उपमन्त्रीको भेजी थी।