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जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

दो दिसम्बरको

दिसम्बरकी २ तारीखको भारतीयों को अपने घरोंमें घुसकर नहीं बैठना है। फेरीवालोंको डर कर फेरी बन्द करनेके बजाय निर्भयतापूर्वक बाहर निकल कर अपने धन्धेमें लगना चाहिए। उस दिन और उसके बादके दिनोंमें कुछ नहीं है यह समझकर हमेशा की तरह काम करते रहना है। यह लड़ाई आजादीके लिए है। इसलिए कदम-कदमपर हिम्मतकी आवश्यकता है। इसके बिना सफल होना सम्भव नहीं है।

हेलूने फिर मुँह फेरा

श्री हेलूने अपना मुँह काला किया इसके लिए उन्होंने मस्जिदमें माफी मांगी है और पंजीयकको निम्नानुसार पत्र[१] लिखा है:

मैं १२ अक्तूबरको प्राप्त अपना पंजीयनपत्र सादर वापस भेज रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि ऐसा करके मैं नये कानूनका जुआ उतार नहीं सकता; फिर भी जिन परिस्थितियों में मैं हूँ, उनमें जब मैं पंजीयन कराने गया तब मेरे मनमें परस्पर विरोधी भावनाएँ जोर कर रही थीं। एक ओर तो मेरा लेनदार मुझे कानूनके सामने झुकनेके लिए विवश कर रहा था, और यदि मैं न झुकूं तो मेरा माल कुर्क कर देनेकी धमकी दे रहा था, दूसरी ओर कानूनके सामने झुकनेकी मेरी बेशर्मीका खयाल मुझे आ रहा था। मैंने बेशर्मीका पूरा अनुमान नहीं लगाया और धमकीके वश हो गया। अब मैं देखता हूँ कि मेरा जीवन बेकार हो गया है।

मेरे देशभाई और सहधर्मी मुझे छोड़ रहे हैं। मेरी बहन और अन्य सगे-सम्बन्धी मेरा तिरस्कार करते हैं और कहते हैं कि मैंने अपनी ली हुई शपथ तोड़ी है, इसलिए मैं अपने कुटुम्बमें रहने योग्य नहीं हूँ। मेरी जायदाद तो शायद मेरे पास रहेगी। किन्तु मैं देखता हूँ कि मेरे सगे-सम्बन्धी और देशवासी भाई यदि मुझे छोड़ देते हैं तो वह जायदाद मेरे लिए बोझ रूप ही होगी। ३१ जुलाईको प्रिटोरियामें आम सभा हुई थी तब जिन मेमन लोगोंने पैसेके मोहमें अपनी ली हुई शपथ भंग करके कानूनकी गुलामी स्वीकार की थी, उनके खिलाफ सख्त बोलनेवाला केवल मैं ही एक था। किन्तु जब उसी पैसेका लोभ मुझे हुआ तब मैं भी फिसल गया। जो हो गया उसे तो मिटाया नहीं जा सकता। किन्तु यह पंजीयनपत्र आपको भेजकर मैं अपने आपको कुछ हदतक निष्कलंक करनेका सन्तोष मान लेता हूँ।

अन्तमें मैं इतनी ही आशा करता हूँ कि मेरा उदाहरण मेरे भाइयोंके लिए चेतावनी स्वरूप हो जायेगा। और जबतक आपके दफ्तरका काम नये कानूनपर अमल करवाना रहेगा तबतक वे आपके दफ्तरकी ओर देखेंगे भी नहीं।

इसके अलावा श्री हेलूने उपर्युक्त पत्र अखबारोंमें भेजते हुए यह भी लिखा है कि उनके कुत्तेको जहर देनेकी जो बात अखबारोंमें प्रकाशित हुई है, वह झूठ है।

  1. मूल अंग्रेजी पत्र इंडियन ओपिनियन ता॰ ३०-११-१९०७ में प्रकाशित हुआ था।