मुसीबतने हमें इस संघर्षमें अजीब हम-बिस्तर बना दिया है। यह सर्वथा सत्य है कि इस स्थितिके बावजूद ब्रिटिश भारतीय अब भी किसी-न-किसी प्रकार ब्रिटिश प्रजावाली भावनासे चिपके हैं और उनका विचार है कि किसी-न-किसी दिन वे इस दलीलको फलीभूत करने में समर्थ हो जायेंगे। जहाँतक इस बातका सम्बन्ध है, चीनी संघर्ष ब्रिटिश भारतीय संघर्षसे भिन्न है, परन्तु जहाँतक इस काले कानूनके परिणामोंका सम्बन्ध है, चीनी संघर्ष ब्रिटिश भारतीयोंके संघर्ष जैसा ही है, और चूँकि यह कानून दोनोंको समान रूपसे पीसता है, इसलिए दोनों उससे लड़ रहे हैं। यदि एशियाई अधिनियमके रद किये जानेके बारेमें कोई औचित्य ढूंढ़ा जाये तो मेरी रायमें इसके दो उदाहरण दिये जा सकते हैं। महत्त्वकी दृष्टिसे निश्चय ही पहला है, आप चीनी श्रोताओंके एक देशभाईकी मृत्यु। आपके देशभाईने, जिसे वह गलती समझता था, उसके लिए आत्म-बलिदान किया है। यह दिखानेका एक क्षुद्र प्रयत्न किया गया है कि उस आदमीने अन्य कारणोंसे अपनी जान दी। परन्तु यह स्पष्ट तथ्य है कि उस आदमीने इस काले, क्षुद्र एशियाई अधिनियमके कारण अपने प्राण दिये। दूसरा उदाहरण, जिसका उन्होंने उल्लेख किया, स्वयं (वक्ताके) अपने देशभाइयोंमें से एकका था।[उन्होंने कहा,] एक ऐसे आदमीको, जो कि पूर्णतया निर्दोष था और अपना जीवन अपनी समझके अनुसार सर्वोत्तम ढंगसे बितानेका प्रयत्न कर रहा था तथा अपने देशवासियोंकी आध्यात्मिक आवश्यकताओंकी पूर्ति कर रहा था, जेल भेजा गया और वह आज भी मात्र इसी एशियाई अधिनियमके कारण जोहानिसबर्ग में अवहेलित है।[१] सब तरहके अभियोग उसके विरुद्ध लगाये गये हैं और उन राजद्रोहात्मक अभियोगोंके लिए रंचमात्र भी सबूत नहीं है। मैं केवल इतना ही कह सकता हूँ कि चीनी और ब्रिटिश भारतीय, यदि वे अपने प्रति ईमानदार हैं, अपने देशवासियोंके प्रति ईमानदार हैं और अपने सम्मानको अन्य सारी चीजोंसे मूल्यवान समझते हैं तो, वे उस अधिनियमको, जो अभी ही उनपर इतनी ज्यादती कर चुका है, कभी सिर नहीं झुका सकते। यह संघर्ष एक नैतिक और धार्मिक संघर्ष है। उन्होंने श्रोताओंको स्मरण दिलाया कि सदाचार अपना पारितोषिक स्वयं है और कहा कि यदि यह युरोपीयों और एशियाइयोंके परस्पर विरोधी अधिकारोंका प्रश्न होता तो सरकारने जो रुख अख्तियार किया है वह मैं समझ सकता था। परन्तु मुझे विश्वास है कि यह यूरोपीयों और एशियाइयोंके बीचका संघर्ष नहीं है। जनरल स्मट्सके बहुत दृढ़ होनेकी ख्याति है और वे ऐसे हैं भी, परन्तु जहाँतक एशियाइयोंका सम्बन्ध है, उस ताकतका सबूत मिलना अभी बाकी है। उन्होंने कहा है कि वे [ट्रान्सवाल सरकारके सत्ताधारी लोग] तेरह हजार ब्रिटिश भारतीयों और तेरह सौ चीनियोंकी आत्माकी पुकार नहीं सुन रहे हैं और उन्होंने एक ऐसे कामको करनेके लिए अत्यन्त सड़ियल रास्ता चुना है जो बहुत पहले ही अच्छे तरीकेसे किया जा सकता था। दूसरी दिसम्बरके बाद उनकी स्वतन्त्रता उनकी न रहेगी, परन्तु वे गिरफ्तार हों या नहीं, वे अपने सामने उस मृत व्यक्तिकी भावनाको रखेंगे और इस संघर्षमें याद रखेंगे कि सदाचार अपना पारितोषिक स्वयं है।
इंडियन ओपिनियन ७-१२-१९०७
- ↑ यहाँ रामसुन्दर पण्डितसे तात्पर्य है; देखिए "रामसुन्दर पण्डितका मुकदमा", पृष्ठ ३५२-५६।