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३१३. रिचकी सेवाएँ

श्री रिच विलायतमें रहकर भारतीयोंके लाभके लिए जो अथक परिश्रम कर रहे हैं उसका सारे भारतीयों को कदाचित् ही पूरा अनुमान होगा। अभी-अभी ट्रान्सवालके भारतीयोंकी मुसीबतोंकी हूबहू तस्वीर एक छोटी-सी पुस्तिकाके[१] रूपमें प्रकाशित करके उन्होंने हमारे समाजका और भी अधिक उपकार किया है। प्रत्येक भारतीय जानता है कि श्री रिचकी सेवाका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। २३ पृष्ठकी अठपेजी पुस्तिकामें सारे विवरणका समावेश कर दिया है और सन् १८८५ से पड़नेवाली सारी विपत्तियोंका संक्षेपमें बड़ी खूबीसे सुन्दर वर्णन किया है। फिर हमें श्री रिचके परिश्रमका ही लाभ मिलता हो सो बात नहीं, उनकी प्रतिष्ठाका भी लाभ मिलता है। अर्थात् श्री रिच जैसे १८ वर्ष पुराने गोरे उपनिवेशवासी भारतीयोंके पक्षमें लड़ते हैं इस बातका गोरोंपर अधिक प्रभाव पड़ सकता है। और इसी कारण उन्होंने यह बात पुस्तिकाकी प्रस्तावनामें बताई है। इतनी छोटी पुस्तिकामें श्री रिचने जिस विस्तृत जानकारीका समावेश किया है उससे श्री रिचका परिश्रम प्रकट होता है।

सन् १९०३ में लॉर्ड मिलनरने भारतीय समाजको जो वचन दिये थे श्री रिचने उनकी याद दिलाई, यह ठीक किया। लॉर्ड मिलनरने कहा था:[२]

एक बार पंजीयन करवा लो, जिससे फिर कोई आपका नाम न ले सके। और न आपको फिरसे कभी पंजीयन करवाना पड़े, न अनुमतिपत्र ही लेने पड़ें। इस समय पंजीयन करवाने से आपका यहाँ रहनेका अधिकार पक्का हो जायेगा। इसके बाद आप लोग आने-जानेके हकदार हैं।

अनिवार्य पंजीयन और स्वेच्छया पंजीयन दोनोंकी तुलना करके श्री रिचने उनके बीचका अन्तर दिखा दिया है। "स्वेच्छया पंजीयन में अनिवार्यताका डंक नहीं रहता। गोरोंकी भावनाओंके निर्वाहके लिए स्वेच्छया पंजीयन करवाने में निश्चय ही भारतीय समाजकी भलमनसाहत मानी जायेगी। अनिवार्य पंजीयन करवाया गया तो भारतीयमें और आफ्रिकीमें भेद नहीं रहता। फिर उस उदाहरण के आधारपर पड़ोसी उपनिवेशी भी ट्रान्सवालके कदमोंपर चलना सीखेंगे। इसके अलावा अनिवार्य रूपसे पंजीकृत होना पृथक् बस्तियों में निकाल दिये जानेके लिए बीज बोनेके समान हो सकता है।

श्री रिचने अपने लेख में लम्बी दलीलोंमें उतरने के बदले महत्त्वपूर्ण घटनाओंको जगह-जगहपर इतनी अच्छी तरह रखा है कि पाठक भारतीय लड़ाईके औचित्यको स्वीकार किये बिना नहीं रह सकता। अपनी पुस्तिकाके अन्तमें श्री रिचने जो बताया है उसके अनुसार युद्ध-पूर्व वचन

  1. देखिए परिशिष्ट ८।
  2. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ ३२७-२८।