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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 7.pdf/४५२

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सम्पूर्ण गांधी वाङ्‍मय


आगे प्रश्न करनेपर सार्जेन्ट मैन्सफील्डने अनुमतिपत्र और पंजीयन-प्रमाणपत्र प्रस्तुत किये और कहा कि ये १८८५ के कानून ३ के अन्तर्गत लिये गये हैं। इसके साथ सरकारी पक्षकी कार्रवाई समाप्त हो गई।

श्री गांधीने जोर देकर कहा कि सरकारी गवाहने उनके मुवक्किलोंका पक्ष सिद्ध कर दिया है। न्यायाधीशके सम्मुख जो प्रश्न है वह विशुद्ध रूपसे यह है कि उनके मुवक्किलोंके पास शान्ति-रक्षा अध्यादेशके अन्तर्गत जारी किये गये अनुमतिपत्र हैं या नहीं। ये अनुमतिपत्र सार्जेन्ट मैन्सफील्डने प्रस्तुत किये और यह स्वीकार किया कि वे विधिवत् हैं।

श्री डी'विलियर्स: तब आपका तर्क यह है कि प्रश्न विशुद्ध कानूनी बहसका है?

[श्री गांधी]: हाँ श्रीमान्, बिलकुल यही।

तब श्री मेंजने बहस की कि इन लोगोंके पास जो अनुमतिपत्र हैं उनमें केवल उपनिवेशमें आने और रहनेका अधिकार दिया गया है, किन्तु उपनिवेशसे जाने और फिर वापस आनेका नहीं। उन्होंने यह तर्क दिया कि जब एक बार ये लोग उपनिवेशसे चले गये तब उनके अनुमतिपत्र रद हो गये हैं।

श्री गांधीने उत्तरमें कहा कि प्रश्न फिर वापस आनेका भी नहीं है। न्यायाधीशको आरोपपत्रकी मर्यादाके भीतर रहना है। इसमें उनके मुवक्किलोंपर शान्ति-रक्षा अध्यादेशके खण्ड ५ के अन्तर्गत बिना अनुमतिपत्रके प्रवेश करने का आरोप लगाया गया है। न्यायाधीशके सम्मुख जो साक्षी है उससे निर्विवाद रूपसे सिद्ध होता है कि प्रवेश करने पर उनके पास वस्तुतः उनके अनुमतिपत्र थे। इसके अतिरिक्त वे सब १८८५ के कानून ३ के अन्तर्गत ३ पौंड दे चुके हैं। सरकारी वकीलका तर्क भी उचित नहीं माना जा सकता। सर्वोच्च न्यायालयने भाभा बनाम ताजके मुकदमेमें यह निर्णय दिया था कि उपनिवेशमें आनेके अनुमतिपत्रमें उससे जाने और वापस आनेकी अनुमति भी सम्मिलित होती है। उस मामलेमें न्यायमूर्ति ब्रिस्टोवने करीब-करीब इन्हीं शब्दोंका प्रयोग किया है। इसलिए चाहे जिस प्रकारसे इस मुकदमेपर विचार किया जाये, उनके मुवक्किल बरी होनेके अधिकारी हैं। न्यायाधीशको विधि-विभागके निर्देशोंसे या उसने शान्ति-रक्षा अध्यादेशके खण्ड ५ की जो व्याख्या की है उससे कोई सरोकार नहीं है। मेरी सम्मतिमें, निश्चय ही उचित मार्ग यह होता कि यदि उनके मुवक्किलोंने नये अधिनियमका उल्लंघन किया था तो एशियाई विभाग उनपर उसके अन्तर्गत मुकदमा चलाता।[]

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, १४-१२-१९०७
  1. न्यायाधीशने गांधीजीके तर्कको मान लिया और अभियुक्तोंको बरी कर दिया। तब अन्य १७ व्यक्ति न्यायालय में लाये गये; किन्तु उनपरसे आरोप उठा लिया गया।