३१९. पत्र: 'इंडियन ओपिनियन' को
जोहानिसबर्ग
दिसम्बर १२, १९०७
सम्पादक
शायद आप मुझे अपने पत्र द्वारा जनताका ध्यान भारतीयोंके उन ३८ मुकदमोंसे[१] मिलनेवाले पाठकी ओर आकर्षित करनेकी सुविधा देंगे जो देखने में शान्ति-रक्षा अध्यादेशके अन्तर्गत चलाये जानेपर भी वास्तव में एशियाई पंजीयन अधिनियमके अनुसार चलाये गये हैं।
पाठ यह मिलता है कि एशियाई दफ्तरकी कार्यवाहियाँ एकदम गुप्त हुआ करती हैं। इस बातका पता पूनियाकी गिरफ्तारीसे चला कि भले ही भारतीय स्त्रियाँ अपने वैध रूपसे उपनिवेशमें प्रवेश करने के हकदार पतियोंके साथ हों, स्वयं उन औरतोंके पास अनुमतिपत्र न होनेपर उनकी गिरफ्तारीकी गैरकानूनी आज्ञाएँ दी गई थीं।
एक बारह वर्षके लड़केकी गिरफ्तारीसे ही यह पता चला कि इस बातकी गुप्त तथा गैरकानूनी हिदायतें जारी की गई थीं कि अबोध बच्चोंके पास अलग अनुमतिपत्र होने चाहिए।
यह बात पण्डित रामसुन्दरके[२] जेल जानेसे मालूम हुई कि एशियाइयोंके खिलाफ तहकीकात करनेके लिए एशियाई दफ्तरपर साधारण तथा सर्वविदित नियम लागू नहीं होते।
अन्तिम यह रहस्योद्घाटन अड़तीस भारतीयोंकी गिरफ्तारी और उनकी दोसे चार दिन तक की हिरासतसे हुआ कि एशियाई दफ्तरको, पाँच सालसे चले आ रहे रिवाजके खिलाफ, अचानक यह पता लगा कि शान्ति-रक्षा अध्यादेशके अन्तर्गत जारी किये हुए अनुमतिपत्रोंकी सीमामें उपनिवेशसे अस्थायी रूपसे चला जाना तथा वहाँ लौट आना शामिल नहीं है। कानूनकी नई व्याख्या के बारेमें गुप्त रूपसे हिदायतें जारी की गई थीं और भारतीयोंको उनके बारेमें पहलेसे कोई खबर नहीं दी गई। लोग यह नहीं जानते कि डर्बनमें तैनात ट्रान्सवालके एशियाई अधिकारीने वास्तवमें उन्हीं आदमियोंकी जाँच की थी और उन्हें पास कर दिया था। इनमें से छत्तीस आदमी 'सुल्तान' जहाज द्वारा लौटे हुए यात्री थे। मुझे बतलाया गया है कि एशियाई कार्यालयने उन आदमियोंकी जाँच करनेमें तीन दिन लगाये थे।
और इतनेपर भी श्री लिंड्से, जिन्हें वकील होनेके कारण अधिक जानकारी होनी चाहिए, कह सकता हूँ, इस बातको सोचनेका कष्ट किये बिना कि उस बातका कोई भारतीय पक्ष भी हो सकता है, बड़ी आसानीसे चोरी-छिपे घस जानेकी बातें करते हैं।
अनाक्रामक प्रतिरोधी जनमतका निर्माण करनेपर निर्भर करते हैं, लेकिन अगर वे जनमतको अपने पक्षमें न कर सकें तो भी वे अपने शुद्ध संकल्पसे पीछे हटनेवाले नहीं हैं। इस