बातसे इनकार नहीं किया जा सकता कि उनके कष्टसहनसे उपनिवेशके कुछ नेताओंको अन्तमें सोचना पड़ा है। क्या मैं उनसे, और अभीतक भारतीय दृष्टिकोणकी उपेक्षा करनेवाले दूसरे लोगोंसे, पूछ सकता हूँ कि क्या भारतीयोंका यह पवित्र कर्तव्य नहीं है कि वे एक ऐसे अधिनियमके सामने सिर झुकाने से इनकार कर दें जो एक अकेले आदमीके हाथमें ऐसे निरंकुश अधिकार देता है कि वह खुफिया तौरसे पूछताछ करता है, खुफिया तौरसे हिदायतें जारी करता है और लोगोंकी बातें सुने बिना ही उन्हें सजा दे देता है। यद्यपि कर्नल मैकेंजीको[१] जूलूलैंडमें जंगी कानूनकी घोषणाके अन्तर्गत निर्विवाद रूपसे पूरे अधिकार मिल गये हैं तथापि दीनूजूलूको[२] भी, जिसपर विद्रोही इरादोंका सन्देह है, केवल सन्देहपर, उसकी सुनवाई किये बिना, सजा नहीं दी गई। तब भारतीयोंसे यह आशा क्यों की जाये कि वे बिना शिकायत किये संगठित जाली प्रवेशके गलत इल्जामको सहते रहें और इस देशमें रहने के अपने अधिकारके बारेमें एशियाई अधिनियमके अन्तर्गत गैर अदालती जांचको मान लें? अगर उनका इस आरोपका खण्डन करना खोखला होता तो क्या वे बार-बार सारे मामलेकी खुली अदालती जाँचकी माँग करनेके बजाय यह पसन्द न करते कि उसे दबा दिया जाये?
आपका, आदि,
मो॰ क॰ गांधी
इंडियन ओपिनियन, २१-१२-१९०७
३२०. स्वर्गीय आराथून
पिछले हफ्तेकी डाकसे श्री आराथूनकी शोकजनक मृत्युका समाचार प्राप्त हुआ है। श्री आराथूनने पूर्व भारत संघके अवैतनिक मंत्रीके रूपमें उसकी कई वर्ष तक सचाईके साथ और भली भाँति सेवा की थी। 'एशियाटिक क्वार्टरली रिव्यू' के सम्पादकके रूपमें उनकी सेवाओंका उन सभीको पता है, जिनका भारतके साथ कुछ भी सम्बन्ध है। लेकिन दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंके बीच उनका नाम सबसे अधिक इसलिए है कि उनके प्रति श्री आराथूनको बहुत ज्यादा हमदर्दी थी और साथ ही जिस संघसे उन्होंने अपनेको इतना एकरूप कर दिया था उसके कार्योंके सिलसिलेमें वे दक्षिण आफ्रिकावासी भारतीयोंके प्रश्नमें बराबर दिलचस्पी लेते थे। वे इस प्रश्नको संघके और संघके द्वारा अधिकारियोंके ध्यानमें लानेका मौका कभी नहीं चूकते थे। पिछले साल उन्होंने शिष्टमण्डलकी अपने हार्दिक सहयोग द्वारा बहुत मूल्यवान सहायता की थी। हम श्री आराथूनके परिवारके प्रति अपनी समवेदना प्रकट करते हैं।
इंडियन ओपिनियन, १४-१२-१९०७