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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 7.pdf/४६३

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जोहानिसबर्गकी चिट्ठी

परीक्षात्मक मुकदमेके दिनोंमें सरकार किसीको परेशान नहीं करेगी, सो बात नहीं है। उस अवधिमें कानून बन्द नहीं रह सकता।

हमीदिया अंजुमनकी सभा

रविवारको फिर एक जोरदार सभा हुई थी। लोग इतने आये थे कि वे सभा भवनमें समा ही न सकते थे। इसलिए बाहर मैदानमें सभा हुई थी। प्रिटोरियासे श्री काछलिया, श्री सूज, श्री मणिभाई देसाई, श्री पिल्ले, श्री गोपाल, श्री बेग तथा श्री व्यास खास तौरसे इसीलिए आये थे। इमाम अब्दुल कादिर सभापति थे। उन्होंने तथा श्री सूज, श्री बेग, श्री काछलिया, श्री नायडू, श्री हजूरासिंह, श्री अहमद खाँ, श्री अलीभाई आकूजी, आदि सज्जनोंने भाषण दिये। श्री गांधीने हकीकत समझाई। श्री मौलवी अहमद मुख्त्यारने भी, जो किसी कामसे डेलागोआ-बे जाकर अभी लौटे थे, लोगोंको समझाया। अन्तम सबने स्वीकार किया कि स्वेच्छया पंजीयन तो करवाया ही जाये। किन्तु अंगूठोंकी निशानी देनेमें पंजाबी भाइयोंको विरोध था। दूसरोंका कहना था कि दोनों अँगूठोंकी निशानी मर्जीसे देनेमें हर्ज नहीं है। लोगोंका यह जोश प्रशंसनीय है। इससे प्रकट होता है कि लोग अपने विचार जाहिर करने में डरते नहीं हैं और हिम्मतसे बोलते हैं। जो छः महीने पहले कानूनको जरा भी नहीं समझते थे वे अब कुछ-कुछ समझने लगे हैं। यह सब आत्मबल आजमानेका फल है। मैं जानता हूँ कि अन्तमें सब समझने लग जायेंगे; क्योंकि दो अँगूठोंकी निशानी देनेमें अप्रतिष्ठा नहीं है। किन्तु यदि वही काम अनिवार्य रूपसे करना पड़े तो उसमें अप्रतिष्ठा है। कानून समाप्त हुआ कि हम कह सकते हैं कि हम स्वतन्त्र हो गये हैं।

डेलागोआ-बेकी दीन स्थिति

मौलवी साहब डेलागोआ-बेसे खबर लाये हैं कि जब सारे दक्षिण आफ्रिका में भारतीय समाज जाग गया है और इज्जतके लिए लड़ रहा है तब डेलागोआ-बेके नेता सो रहे हैं। वहाँकी सरकार उन्हें जितना मारती है उतना सब वे चुपचाप सहन करते हैं। लोगोंको इज्जतकी परवाह नहीं है। वे तो यही समझते हैं कि पैसा मिला तो परमेश्वर मिल गया। और सरकारके सामने तो जी-हजूरी करते हैं। इस दीन स्थितिसे क्या डेलागोआ-बेके भारतीय उठेंगे नहीं?

भारतीयोंका जोर

नये कानूनके सम्बन्धमें सरकार ढीली ही होती जा रही है। यह बात अब गोरे भी देख रहे हैं। 'रैंड डेली मेल' तथा 'संडे टाइम्स' में दो व्यंग्य चित्र दिये गये हैं। एकमें दिखाया गया है कि स्मट्स साहब भारतीयोंपर नया कानून रूपी पिस्तौल छोड़ रहे हैं। भारतीय कहते हैं—"आपसे जितना बने उतना करें। हम तो कानूनके सामने नहीं झुकेंगे।" तब स्मट्स साहब बोल उठते हैं, "अरे यार, ऐसा मत कहो, मेरी पिस्तौल काम नहीं देती।" दूसरे व्यंग्य चित्रमें जनरल स्मट्स और अन्य सरकारी अधिकारी भारतीय समाजके नेताओंके सिर भालोंसे उड़ाना चाहते हैं। परन्तु उनकी मेहनतसे उनके घोड़े थककर चूर-चूर हो गये हैं; और सवारोंका दम निकला जा रहा है; फिर भी नेताओंके सिर तो अभी कायम ही हैं। ये दोनों चित्र गोरोंके मनकी स्थिति बताते हैं। 'इंडियन ओपिनियन' के सम्पादक महोदय वे दोनों चित्र अपने ग्राहकों के लिए प्राप्त करनेका प्रयत्न कर रहे हैं। इसलिए मैं ज्यादा नहीं लिखूँगा।