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३३१. अधीरता

हम देखते हैं कि ट्रान्सवालके कुछ भारतीय अब लड़ाईका अन्त देखने के लिए उतावले हो रहे हैं। किन्तु अभी लड़ाईका अन्त जरा दूर दिखाई देता है। बड़े-बड़े काम एकाएक नहीं बन जाते। दक्षिण आफ्रिकामें सब जगह सब लोग समझते हैं कि यह लड़ाई भारतीयोंकी प्रतिष्ठा रखने के लिए है। हम सब एक प्रजा है, हमें हक मिलने चाहिए, हम स्वतन्त्र है, यह सब बातें दिखाना इस लड़ाई में निहित है। इतनी बड़ी विजय प्राप्त करने के लिए उतावली करनेसे क्या होगा? बहुत-से जेल जाकर अपने आपको गढ़ेंगे और बाकी लोग प्रबल रहेंगे, तभी किनारा लगेगा।

हमारी इस बारकी जोहानिसबर्गकी चिट्ठीसे मालूम होगा कि स्मट्स साहब अभीतक डिगे नहीं हैं। इससे प्रकट होता है कि उनके पास अब भी छिपी खबर है कि भारतीय अन्त में हार जायेंगे। परवानोंका इलाज अभी उनके पास है जो आजमाना बाकी है। सारी बातें आजमाये बिना वे भारतीयोंको परेशान करना क्यों छोड़ दें? लड़ाईमें सैनिक विवश हो जानेपर ही आत्मसमर्पण करते हैं। हमारी लड़ाईमें खून-खराबी नहीं होती और सच्चे गोला-बारूदका उपयोग नहीं किया जाता, इसलिए कोई यह न समझ ले कि यह लड़ाई नहीं है। है तो हमारी भी लड़ाई ही। अन्तर केवल इतना है कि इस लड़ाई में हमारी ओर सत्य है। इसलिए परिणाम एक ही हो सकता है। किन्तु यदि हम अधीर बनेंगे, तो समझ लीजिए कि सत्य उतना ही कम हो जायेगा। और जब सत्यको जीतना है तो वह धीरे-धीरे ही जीता जा सकता है। वास्तवमें वह जीत बहुत ही कम समयमें मिली यही माना जायेगा। किन्तु ऊपर-ऊपर देखने से हमें आभास होता रहता है कि उसमें हमें ज्यादा समय लगता है। जो अपना सब कुछ बलिदान करने को तैयार हैं तथा अपनी शपथ और प्रतिष्ठाकी प्राणके समान रक्षा करते हैं, उन्हें समय जाने से कुछ खोना है ही नहीं।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २१-१२-१९०७