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सम्पूर्ण गांधी वाङ्‍मय


फिर भी कुछ हृदतक उत्तर देनेका प्रयत्न करना ठीक समझकर उत्तर दे रहा हूँ। कई पहलुओंसे विचार करके देखनेपर मालूम होगा कि भारतमें महामारी, भुखमरी वगैरह बढ़ गई हैं। इसका कारण भारतीय प्रजाका पाप है। यदि कोई कहे कि राज्यकर्ताओंका पाप है तो यह बात हमें मान्य है। उनके पापके कारण प्रजा दुःखी होती है, यह सदाका अनुभव है। किन्तु याद रखने योग्य बात यह है कि पापी सरकार पापी प्रजाको ही मिलती है। इसके अलावा, सच्चा नियम यह है कि दूसरोंको दोष देनेके बदले अपने दोषोंकी छानबीन करना अधिक लाभप्रद होता है।

हिन्दू-मुसलमानके बीच फूट और कटुता पाप हैं। किन्तु ये असल पाप नहीं हैं। फूट मिट जाये और दोनों कौमें मिलकर रहने लगें तो विदेशी शासन हट जायेगा अथवा उसकी नीतिमें परिवर्तन होगा। किन्तु उससे प्लेग और अकाल भी मिट ही जायेंगे, ऐसा माननेका कोई कारण नहीं।

मुख्य पाप तो भारतीय प्रजाका असत्य है। महामारीके समय हम सरकारको तथा अपने आपको धोखा देते हैं। ऊपरसे सफाई रखनेका दिखावा करते हैं, किन्तु सच्ची स्वच्छता नहीं रखते। घरको धुआँ देकर शुद्ध करना हो तो उसका केवल दिखावा किया जाता है। यदि उसके बिना चल सकता हो, सिपाहियोंको रिश्वत दी जा सकती हो, तो वह देकर हम आवश्यक कामोंसे बच जाते हैं। यह रोग बचपनसे ही चलता रहता है। शालामें एक बात सिखाई जाती है। वहाँ बच्चा 'हाँ' कह देता है। घर आनेपर उससे उलटा ही बरतता है। वैसा करने में माता-पिता सम्मत रहते हैं। स्वच्छता रखनी चाहिए या नहीं, इस सम्बन्धमें नियम बनाये जाते हैं। किन्तु उनका पालन किया जाये या नहीं, इस बातको हम ताकपर रख देते हैं। उसके बारेमें मतभेद भले हो, किन्तु यहाँ जो बात सिद्ध करना चाहता हूँ सो यह है कि हम असत्यका सहारा लेते हैं। बहुतेरी बातोंमें हम केवल आडम्बर करते हैं। इससे हमारे तन्तु ढीले पड़ जाते हैं, हमारा खून पापकी गन्दगीसे बिगड़ जाता है और हर तरहके कीटाणुओंके वशमें हो जाता है। देखने में आता है कि अमुक वर्णोंको महामारी वगैरह नहीं होती। इसका कारण यह है कि वे स्वच्छताका या और किसी प्रकारका आडम्बर नहीं करते, बल्कि वे जैसे हैं वैसे ही दिखते हैं। उन्हें आडम्बर करनेवालोंकी अपेक्षा उस हद तक हम ऊँचा समझते हैं। उपर्युक्त कथनका मतलब यह नहीं कि सभी इसी तरह करते हैं। लेकिन अधिकतर वैसा होता है।

उपर्युक्त पापमें से एक दूसरी लत पैदा हुई है और वह सभी वर्गोंमें है, और भयानक है; वह है विषय-लोलुपता—व्यभिचार। इस विषयमें संक्षेपमें ही लिखा जा सकता है। सामान्यतः इसकी चर्चा करते हुए लोग हिचकते हैं, हम भी हिचकते हैं। फिर भी अपने पाठकोंके सामने यह विचार रखना हम अपना फर्ज समझते हैं। पर-स्त्री संग ही केवल व्यभिचार नहीं है। स्व-स्त्री संगमें भी व्यभिचार है। यह सब धर्मोकी शिक्षा है। स्त्री-संग केवल प्रजा उत्पन्न करनेके लिए ही ठीक है। सामान्यतः देखने में आता है कि व्यभिचार भावनासे संग किया जाता है, और उसके परिणामस्वरूप सन्तान उत्पन्न होती है। हम मानते हैं कि भारतकी दशा इतनी खराब है कि इस समय बहुत ही कम सन्तान उत्पत्ति होनी चाहिए। इसका मतलब यह हुआ कि यदि संग हो तो वह बहुत कुछ व्यभिचारमें ही शामिल होगा।