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अरबी ज्ञान


यदि यह मान्यता ठीक हो तो समझदार भारतीयका कर्तव्य है कि या तो वह बिलकुल शादी न करे और यदि वह उसके वशकी बात न हो तो स्त्री-संग करनेसे मुक्त रहे। यह सब कठिन काम है, फिर भी बिना किये छुटकारा नहीं है।

नहीं तो पाश्चात्य प्रजाका अनुकरण करना होगा। पाश्चात्य प्रजा राक्षसी उपाय बरतकर सन्तान-निरोध करती है। वह युद्धमें बहुत लोगोंका नाश होने देती है, और ईश्वरपर से आस्था छोड़कर दुनियाई सुखोंमें ही रची-पची रहनेकी तजवीज करती है। इस तरह करके भारतीय भी उनकी ही तरह महामारी आदिसे मुक्त रह सकते हैं। किन्तु हम मानते हैं कि भारतमें पश्चिमका राक्षसी रंग प्रवेश नहीं कर सकता।

यानी भारत या तो खुदा—ईश्वर—की ओर एक नजर रखकर पापमुक्त होगा और सुखी रहेगा या सदा गुलामीमें रहकर, जनाना बनकर, मौतसे डरते हुए, महामारी वगैरह बिमारियोंमें सड़कर बिना मौत मरता रहेगा।

ये विचार किसीको आश्चर्यजनक, किसीको हास्यास्पद, किसीको अज्ञानपूर्ण मालूम होंगे। फिर भी हम बेधड़क लिख रहे हैं और समझदार भारतीयोंसे प्रार्थना करते हैं कि वे इनपर पूरी तरह विचार करें। पागलपनके हों या सयाने, ये विचार लेखकने अपने गहरे अनुभवके आधारपर लिखे हैं। इनके अनुसार आचरण करनेसे नुकसान तो होगा ही नहीं। सत्यके सेवन और ब्रह्मचर्यके पालनसे किसीको नुकसान नहीं होता। कोई यह भी न माने कि एक दो व्यक्तियों के पालनेसे प्रजाको क्या लाभ होगा। ऐसा कहनेवाले व्यक्तिको नादान समझना चाहिए।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २८-१२-१९०७

३४६. अरबी ज्ञान

प्राच्य देशोंके ज्ञानके विषयमें कतिपय पुस्तकोंपर हम इसके पहले विचार[१] कर चुके हैं। सूचित विषयपर उन्हीं लेखकोंकी लिखी हुई उपर्युक्त पुस्तक हमें देखनेको मिली है। यह बताना शायद ही आवश्यक है कि वह पुस्तक अंग्रेजीमें है। उसकी कीमत सिर्फ एक शिलिंग है। उसमें बहुत-से फिकरे 'कुरान शरीफ' से लिये गये हैं। विभिन्न विषयोंपर अरबी विद्वानोंके वचन दिये गये हैं। उदाहरण के लिए कुलीनताके विषयमें लिखा है कि "जो मनुष्य अपने मानकी रक्षा नहीं करता, उसकी कुलीनतापर कलंक लग जाता है।… नीच घरमें जन्म लेनेका दोष विद्या और उत्तम आचरणसे दूर हो जाता है"।[२] मानपर आधारित संघर्षपर लागू होनेवाले वचन-रत्न इस पुस्तकमे हैं। कवि कहता है, "जो व्यक्ति अपने सम्मानको अक्षुण्ण रखता है, लोग उसके दोष नहीं देखते।" फिर कहा है, "यदि मनुष्योंकी दृष्टिमें लज्जाके योग्य कोई बात तुम्हारे दिलमें हो तो उससे शरमाओ।" फिर कहा है, "जो मनुष्य अपने सम्मानकी रक्षा नहीं कर सकता, वह दूसरेको सम्मान नहीं दे सकता।" आगे चलकर दूसरी जगह लिखा

  1. देखिए "पूर्वका ज्ञान", पृष्ठ ४२-४३ और "पूर्व ज्ञान-माला", पृष्ठ ९९।
  2. यहाँ दिये गये उद्धरणोंको इंडियन ओपिनियनमें प्रकाशित अंग्रेजी समीक्षासे मिला लिया गया है।