भूल स्वीकार करनेवाला सबसे पहला व्यक्ति हूँगा, और आपसे क्षमा-याचना करूँगा। परन्तु मैं समझता हूँ, ऐसा संकेत कभी नहीं मिलेगा। मेरा निश्चित मत है कि उपनिवेशमें गुलामोंकी तरह रहकर अपना सम्मान और स्वाभिमान खोनेके बजाय अच्छा है कि हम उपनिवेश छोड़कर चले जायें। यह एक धर्मयुद्ध है और मैं आपको वही सलाह देता हूँ, जो सदैव देता रहा हूँ, अर्थात् जान लगाकर आखिरतक लड़ते रहिए।
इंडियन ओपिनियन, ४-१-१९०८
३५१. पत्र: 'स्टार' को[१]
जोहानिसबर्ग
सम्पादक
'स्टार'
सरकारको इस बात के लिए बधाई मिलनी चाहिए कि उसने साहस और ईमानदारीके साथ मुख्य रूप से उन लोगोंके खिलाफ ही मुकदमा चलाया है जिन्होंने एशियाई कानूनके अनाक्रामक प्रतिरोधके आन्दोलनका नेतृत्व किया है। वास्तवमें यही एक तरीका है जिससे एशियाई भावनाकी व्यापकता और असलियतकी परख हो सकती है। लेकिन जो लोग गिरफ्तार किये गये हैं उनमें कुछ ऐसे हैं जिन्होंने आन्दोलनमें कभी सक्रिय भाग नहीं लिया है, और साथ ही कुछ उल्लेखनीय लोग छोड़ भी दिये गये है। ये दोनों तथ्य अपनी कहानी आप कहते हैं। कुछ लोगोंने यह भी संकेत किया है कि एक या दो गिरफ्तारियाँ निजी द्वेषके कारण हुई हैं। परन्तु आपके सौजन्यका लाभ लेनेमें, मेरा उद्देश्य यह नहीं है कि प्रश्नके इस पहलूपर बहस करूँ।
ये गिरफ्तारियाँ कानूनपर राजकीय स्वीकृतिको घोषणाके साथ ही हुई हैं। इससे जान पड़ता है कि सरकारको जो नये अधिकार प्राप्त हुए हैं, उनका वह प्रयोग करना चाहती है। उसके धनुष में अब तीन प्रत्यंचाऐं लग गई हैं, अर्थात् गिरफ्तारी, व्यापारिक परवानोंकी मनाही और निर्वासन। ये सभी अधिकार इसलिए नहीं लिये या दिये गये हैं कि सरकार एशियाइयोंकी बाढ़ को रोके, क्योंकि ऐसा कोई नहीं चाहता और पंजीयन अधिनियम इसे रोक भी नहीं सकता। व्यापारिक प्रतिस्पर्धाको टालना भी इनका उद्देश्य नहीं है, क्योंकि जो भी भारतीय इस कानूनको स्वीकार करता है वह जितने चाहे उतने, जहाँ चाहे वहाँ, परवाने ले सकता है। ये अधिकार
- ↑ यह ४-१-१९०८ के इंडियन ओपिनियनमें सम्पादकके नाम पत्रके रूपमें छपा था।