३५२. भाषण: चीनी संघमें[१]
[जोहानिसबर्ग
दिसम्बर ३०, १९०७]
जो लोग समझते हैं कि यह लड़ाई धर्मकी लड़ाई नहीं है या इसमें धर्म नहीं है, वे नहीं जानते कि धर्मका क्या अर्थ है। मेरा विश्वास है कि मैंने बहुत-से धर्मोके सम्बन्धमें कुछ-न-कुछ ज्ञान प्राप्त किया है। हर धर्मको यह शिक्षा है कि यदि कोई मनुष्य ऐसा कुछ करता है जिससे उसके पुंसत्वपर बट्टा लगता है, तो उसमें कोई धर्म नहीं है। अगर धर्मका अर्थ ईश्वरकी उपासना है, उसमें विश्वास रखना है, तो मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि ट्रान्सवालमें कुछ पौंड या पेन्स पानेके लिए अपने-आपको गिराना सर्वथा अधार्मिक कृत्य है। ऐसा करते हुए भी हम यह तो स्वीकार करेंगे कि यह ठीक, उचित और न्याययुक्त नहीं है। अगर इस देशके एशियाई आँखें बन्द करके अपने नेताओंके पीछे चलें, और जैसे ही नेता मैदान से हों, वे अधिनियमको स्वीकार कर लें, तो मेरे विचारसे वे इस कानूनके पात्र हैं। इसलिए स्थितिकी कुंजी स्वयं हमारे अपने हाथोंमें है। अगर हमें अपने पक्षके औचित्य में विश्वास है और हम मानते हैं कि हम आगे बढ़ रहे हैं तो परवाह नहीं कि आगे क्या होनेवाला है। जनरल स्मट्स इस उपनिवेशमें जो चाहें करते रहें, और साम्राज्य सरकार भी महामहिमके नामपर जिस बात के लिए चाहे मंजूरियाँ देती रहे, जिस पथपर हमने कदम बढ़ाया है, उससे रंचमात्र पीछे नहीं हटेंगे।
ट्रान्सवालके अधिवासी एशियाइयोंको सरकार सीमासे बाहर निकाल सकेगी, इसमें मुझे तो बड़ा सन्देह है, परन्तु अब ट्रान्सवालके सबसे बड़े वकीलके[२] युक्तियुक्त मतसे मेरा अपना मत और भी पुष्ट हो गया है।
परन्तु एकबार फिर मैं आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप श्री लियोनार्डकी रायका अथवा किसी अन्य कानूनी रायका भरोसा न करें। इस लड़ाईमें जिसपर आप अपनी श्रद्धा केन्द्रित कर सकते हैं, सम्भवत: वह केवल आपके अपने विवेककी राय और परमात्माका साथ है। अगर आपने अन्य किसीका भरोसा किया तो वह बालूकी भीतका सहारा लेना होगा।
इंडियन ओपिनियन, ४-१-१९०८