स्वभावतः यह निश्चित आशा रखते थे कि ट्रान्सवाल प्रदेशके साम्राज्यमें संयोजित हो जानेसे अपनी निर्योग्यताओंक तुरन्त दूर होते और अपने साथी प्रजाजनोंके साथ अपने आपको समानताका दर्जा प्राप्त करते देखेंगे। यद्यपि ट्रान्सवालपर अधिकार होनेके साथ ही गणतन्त्रके बहुत से पुराने कानून रद कर दिये गये, तथापि १८८५ का कानून ३ इस नये उपनिवेशकी कानूनकी पुस्तक में बना रहने दिया गया। इससे उन्हें अवर्णनीय निराशा हुई। और फिर प्रवेश युद्धसे पूर्वके निवासियों तक ही सीमित कर दिया गया; शान्ति-रक्षा अध्यादेश, जिसे नई सरकारने नये राज्यके शत्रुओंको बाहर रखनेके उद्देश्यसे पास किया था, भावी नवागन्तुक एशियाइयोंको बाहर रखनेके लिए प्रयुक्त होने लगा। अधिवासी एशियाइयोंकी वापसीको नियमित और व्यवस्थित करनेके लिए प्रथम बार एक खास महकमेकी स्थापना की गई और उन्हें अपने घरों और व्यवसायों में वापस जानेके लिए अनुमतिपत्र प्राप्त करने में विभिन्न और शोचनीय अड़चनोंका अनुभव हुआ। १९०३ में उच्चायुक्तने १८८५ के कानून ३ की दफाओंको कड़ाईके साथ लागू करनेका निश्चय किया, जो कि महामहिमकी सरकारकी लिखा-पढ़ी के कारण बोअर शासन में बड़ी सीमा तक मृत प्रलेख बना हुआ था। उन समस्त एशियाइयोंको, जो अधिकारियोंको यह सन्तोष नहीं दिला सके कि वे ३ पौंडका पंजीयन शुल्क पहले दे चुके हैं, रकम देनेके लिए मजबूर होना पड़ा। पाँच हजार छियासठ भारतीयों और पाँच सौ पन्द्रह चीनियोंने कुल ९,०५९ पौंड दिये। पंजीयनका सम्पूर्ण स्वरूप ही बदल गया। गणतन्त्र में यह, यदि आवश्यक था भी तो केवल इतनेके लिए कि प्रदाताको ३ पौंडकी रसीद दे दी जाये। एशियाइयोंके पंजीयकने १९०४ में घोषित किया कि भूतपूर्व बोअर सरकार द्वारा संकलित कोई एशियाई पंजीयन प्रलेख (यदि ऐसे प्रलेख कभी रखे जाते रहे हों) किसी जिलेमें नहीं पाये गये। इसके तीन अपवाद मिलते हैं। पुनः पंजीयनने अब प्रथम बार शिनाख्तका रूप धारण कर लिया है। अब जो प्रमाणपत्र जारी किये जा रहे हैं वे केवल ३ पौंडकी रसीदें नहीं हैं। उनमें उनके मालिकोंके नाम, उनकी पत्नियों, बच्चोंकी संख्या, मालिकों की आयु, उनका स्पष्ट हुलिया और अँगूठोंके निशान दिये रहते हैं। इस प्रस्तावित कदमका ब्रिटिश भारतीयोंने इस आधारपर दृढ़ विरोध किया कि कानूनकी आवश्यकताओंफी पहले ही पूर्ति कर चुकनेके बाद वे पुनः पंजीयनके लिए बाध्य नहीं हैं। उच्चायुक्तकी सिफारिश द्वारा इसका खण्डन हो गया और उसमें उन्होंने इसके लिए नई जरूरतके बारे में अपनी सहमति प्रकट की। महानुभावने उन्हें विश्वास दिलाते हुए कहा:
"मेरा खयाल है कि पंजीयनसे उनकी रक्षा होती है। उस पंजीयनके साथ ३ पौंडका शुल्क जुड़ा हुआ है। यह केवल एक बार माँगा जाता है। जिन्होंने उसे पुरानी सरकारको अदा किया है उन्हें केवल यह सिद्ध करना है कि उन्होंने ऐसा किया है और उन्हें यह शुल्क दुबारा नहीं अदा करना होगा। फिर पंजीपर एक बार नाम आ जानेपर उनका दर्जा कायम हो जायेगा और आगे पंजीयन करानेकी आवश्यकता नहीं होगी और न नये अनुमतिपत्रकी आवश्यकता होगी। वह पंजीयन आपको यहाँ रहनेका, यहाँ आने जानेका अधिकार देता है।"
इसपर ब्रिटिश भारतीय समाजने नये पुनःपंजीयनको स्वेच्छ्या स्वीकार कर लिया और बिना किसी कानूनी या अन्य बाध्यताके एक ओरसे सबने आवश्यक परवाने के लिये । इन परवानोंपर पूर्व वर्णित शिनाख्त के ब्योरे अंकित हैं और आज बिना किसी अपवादके लगभग प्रत्येक ब्रिटिश भारतीय अधिवासीके पास ये परवाने हैं।
अचल सम्पत्ति रखनेके विरुद्ध पुराने नियंत्रणोंमें वस्तुतः कोई ढिलाई नहीं हुई।
एशियाइयोंको (ब्रिटिश भारतीयों सहित) बाजारों या बस्तियोंमें, जो उनके लिए खास तौरसे अलग बना दी गई हैं, पृथक करके रखने और उपनिवेशमें, जहाँ चाहें वहाँ व्यापार करनेके लिए, परवानोंकी माँग करनेके उनके अधिकारको घटानेके विचारसे भी १९०२ और १९०३ में महामहिमकी सरकार और ट्रान्सवाल उपनिवेशकी सरकारके बीच यथेष्ट पत्र-व्यवहार हुआ था।
प्रिटोरिया और पीटर्सबर्गके हबीब मोटनके दूकानके परवानेको १९०४ में बदलनेसे इनकार करनेके फलस्वरूप सर्वोच्च न्यायालयको एक निर्णय देना पड़ा, जिसमें वस्तियोंके बाहर व्यापार करनेके उनके अधिकारको उचित माना गया।