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सम्पूर्ण गांधी वाङ्‍मय


१९०३ में, ट्रान्सवालकी खानोंमें काम करनेके लिए कुलियोंके विषय में ट्रान्सवाल सरकार और भारत- सरकार के बीच पत्र-व्यवहार हुआ। वह असफल रहा। भारत सरकारका आग्रह था कि उसकी स्वीकृति के लिए एक आवश्यक शर्त यह है कि पहले वे कतिपय निर्योग्यताएँ दूर की जायें जो उपनिवेशमें रहनेवाले भारतीय व्यापारी समाजको सहनी पड़ रही हैं। ट्रान्सवाल सरकार इससे सहमत होनेमें अपनेको असमर्थ पा रही थी।

उसी वर्ष ट्रान्सवालकी सरकारने महामहिमकी सरकारके समक्ष एक खास प्रकार के विधानका प्रस्ताव प्रस्तुत किया। उसके अन्तर्गत ऐसे अधिकारोंके और भी कम कर दिये जानेका खतरा पैदा हो गया था, जो उस समय एशियाई समाजके पास बच रहे थे। इसका महामहिमकी सरकारने नीचे लिखे अनुसार उत्तर दिया था:

"परन्तु इस देशमें अब जो ब्रिटिश भारतीय हैं, जिनकी संख्या इस समय अपेक्षाकृत कम है और प्रवासके बारेमें प्रस्तावित नियंत्रणों के कारण उसी अनुपातसे घटती जायेगी, उनके साथ व्यापारिक प्रतिस्पर्धाका भय इस प्रस्तावित विधानके लिए यथेष्ट कारण नहीं माना जा सकता। भूतकालमें महामहिमकी सरकारने इस भय द्वारा अपने विचारोंको दृढ़ता के साथ प्रभावित नहीं होने दिया। इसके विरुद्ध वर्षों तक उसने इस विषयके सम्बन्धमें भूतपूर्व दक्षिण आफ्रिकी गणतन्त्रकी नीति और कानूनोंके विरुद्ध साम्राज्य और सभ्य संसार के समक्ष बराबर प्रतिवाद किया है।

"ये कानून केवल आंशिक रूपसे लागू थे, जब कि महामहिमकी सरकारसे अब इनको कड़ाईके साथ केवल लागू करनेकी मंजूरी ही नहीं माँगी जाती, बल्कि एक विधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालयके उस फैसलेको भी रद करनेके लिए कहा जा रहा है जिसने ब्रिटिश भारतीयोंको वे अधिकार दिये थे जिनका महामहिमकी सरकार बड़ी लगनके साथ समर्थन करती रही थी।

"महामहिमकी सरकार इस बातका विश्वास नहीं कर सकती कि ट्रान्सवालका ब्रिटिश समाज उस प्रस्तावके सच्चे स्वरूपकी कद्र करता है जिसके लिए, कुछ सदस्य आपपर दबाव डाल रहे हैं। ब्रिटिश होने के नाते वे ब्रिटिश नामके सम्मानके उतने ही बड़े हिमायती हैं जितने कि स्वयं हम हैं; और उस सम्मानकी रक्षामें कुछ भौतिक बलिदानकी आवश्यकता पड़े तो, मुझे निश्चयपूर्वक लगता है कि, वे सानन्द उसे करेंगे। महामहिमकी सरकारका मत है कि अधिवासी ब्रिटिश प्रजाजनोंपर उन निर्योग्यताओंको लादना, जिनके विरुद्ध हम प्रतिवाद कर चुके हैं, और जिनका शिकार, सही व्याख्या की जानेपर भूतपूर्व दक्षिण आफ्रिकी गणतन्त्रके कानून भी उन्हें नहीं बनाते थे, राष्ट्रीय सम्मानको आघात पहुँचाने वाला है। और महामहिमकी सरकारको इसमें सन्देह नहीं है कि जब यह बात समझमें आ जायेगी तब उपनिवेशका लोकमत उस मॉंगका समर्थन नहीं करेगा, जो पेश की गई है।"

ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीयोंने अपने मनमें अत्यधिक विश्वास जमा रखा था कि वर्तमान शासनके अधिकार में जानेके साथ यदि उनकी निर्योग्यताएँ दूर न हुई तो भी समाजकी, कमसे कम उसके शेष अधिकारोंपर और आक्रमण होनेसे, दृढ़ता के साथ रक्षा की जायेगी।

आपको उन परिस्थितियोंका स्मरण होगा जिनके कारण १९०६ का एशियाई कानून संशोधन अध्यादेश वर्जित कर दिया गया था; और इसी तरह आपको यह भी पता होगा कि, विभिन्न प्रार्थनाओं और प्रतिवादों के बावजूद, ट्रान्सवालकी वर्तमान उत्तरदायी सरकारने, महामहिमकी सरकारकी स्वीकृतिसे, बिल्कुल वैसा ही विधान पास कर लिया है।

महामहिमकी सरकार और जनरल बोयाको मेरी समितिके जो प्रतिवेदन व्यक्तिगत रूपसे दिये गये, उनका इस आश्वासनके साथ स्वागत किया गया कि ट्रान्सवालकी सरकार द्वारा सम्बन्धित कानूनका अधिकसे-अधिक नरमीके साथ और कमसेकम कष्टदायी रूपमें प्रयोग होगा। यह दुःखकी बात है कि सरकारने प्रत्यक्षतः न तो उस कड़ाईको कम करना उचित समझा, जो मूल अध्यादेश में विद्यमान थी और जिसको स्वीकृति नहीं दी गयी थी, और न अभी उन नियमोंको नरम बनाया जिनके अधीन इसका प्रयोग होना है।