शब्द जोड़ दिये गये और इन "सफाई के उद्देश्यसे" निश्चित गलियों आदिमें स्थावर सम्पत्ति खरीदनेका अधिकार भी मान लिया गया। किन्तु यहाँ फिर, "महामहिम सम्राट्की सरकारने यह समझा कि संशोधित कानून सफाई सम्बन्धी कानून है और इसलिए व्यापारियों और उन अन्य व्यक्तियोंपर लागू न किया जायेगा जिनका रहन-सहन ऊँचा है, बल्कि कुलियोंपर लागू किया जायेगा।" [१]इसके अनुसार उसने संशोधित कानूनको मान लिया और लन्दन समझौतेकी धारा १४ के उल्लंघनकी बात छोड़ दी।
किन्तु गणराज्य सरकार इस बातपर अड़ी रही कि कानून "सब एशियाइयोंपर समान रूपसे लागू हो, इसलिए उसने व्याख्या की कि "निवास-स्थान" शब्दों में व्यापारकी और रहनेकी दोनों जगह शामिल हैं। दोनों सरकारोंके बीच फिर बातचीत चली और उसके फलस्वरूप मामला पंचको सौंप दिया गया। इसके परिणामस्वरूप यह फैसला दिया गया: "गणराज्यकी सरकारको इस कानूनको पूरी तरह अमलमें लानेका पूरा अधिकार है।" किन्तु उसे सामान्यत: देशके न्यायालयोंकी एकमात्र और विशिष्ट व्याख्या माननी होगी। चूँकि यह मान लिया गया था कि इससे दो सरकारोंके बीच विवादग्रस्त कानूनों और अन्तर्राष्ट्रीय प्रश्नका समाधान हो जाता है; इसलिए यह फैसला मंजूर कर लिया गया। किन्तु श्री चैम्बरलेनने भारतीय व्यापारियोंकी ओरसे, जिनके साथ उन्होंने सहानुभूति प्रकट की, गणराज्यकी सरकारसे लिखा-पढ़ी करने और सम्भव हो तो उसको यह विचार करनेके लिए निमन्त्रित करनेका अधिकार निश्चित रूपसे अपने पास रखा कि,
'क्या स्थितिपर नये दृष्टिकोणसे पुनः विचार करना बुद्धिमत्तापूर्ण न होगा। और क्या यह तय करना भी कि उसके अपने नागरिकोंके हितकी दृष्टिसे भारतीयोंसे अधिक उदारताका बर्ताव करना और प्रकटत: व्यापारिक ईर्ष्याको बढ़ावा देनेसे मुक्त होना अधिक अच्छा न होगा। उनके पास यह विश्वास करनेके कारण हैं कि यह व्यापारिक ईर्ष्या गणराज्यके शासक दलसे उत्पन्न नहीं हुई।[२]
१८९८ में ट्रान्सवालके सर्वोच्च न्यायालयने यह व्याख्याकी कि 'निवास' में व्यापार सम्मिलित है। फलस्वरूप तैयब हाजी मुहम्मद खाँ नामके एक ब्रिटिश भारतीयको अपने निवास और व्यवसायके स्थानके रूपमें प्रिटोरिया त्यागनेका नोटिस दिया गया और यह अप्रत्यक्ष रूपसे सब ब्रिटिश भारतीयोंपर लागू होता था।
दोनों सरकारोंके बीच आगे फिर पत्र-व्यवहार हुआ। ट्रान्सवाल सरकार स्पष्टतः रंग-सम्बन्धी विचारोंके आधारपर कानून बनाने का प्रयत्न कर रही थी, जैसा कानून ३ के अमलमें 'केपके रंगदार लोगों और एशियाइयों' को सम्मिलित करने के प्रस्तावसे प्रकट होता है। दूसरी ओर साम्राज्य सरकारके प्रयत्नों में यह इच्छा प्रतिलक्षित होती है कि उन सबको, जो केवल कुली नहीं हैं, कानूनके अपमानजनक प्रभावोंसे बचाया जाये, श्री लिटिलटनके शब्दोंमें:
"इसलिए युद्धके आरम्भतक ब्रिटिश सरकारने पहले अधिकारके रूपमें और १८९५ के पंच-फैसले के अनुसार कूटनीतिक प्रयत्नोंसे ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय अधिवासियों के हितोंको कायम रखा; और इन सहप्रजाजनोंके प्रति व्यवहार भूतपूर्व दक्षिण आफ्रिकी गणराज्यके विरुद्ध ब्रिटिश मामलेका एक अंग था।"[३]
लॉर्ड लेंसडाउन और लॉर्ड सेल्बोर्न के भाषणोंसे, जिनका अब ऐतिहासिक महत्त्व हो गया है, यह समझा जा सकता है कि अन्य प्रमुख राजनयिक ट्रान्सवालके ब्रिटिश भारतीय अधिवासियों के विरुद्ध भेदभावकारी कानूनको कैसा समझते थे। नये ट्रान्सवाल उपनिवेशके अपेक्षाकृत अधिक नये कानूनको ध्यानमें रखते हुए इन शब्दोंको दुहराना सम्भवत: ठीक होगा। मार्क्विस ऑफ लैंसडाउनने १८९९ में शेफील्ड में भाषण देते हुए कहा था:
"महारानीके भारतीय प्रजाजनोंकी खासी संख्या ट्रान्सवालमें है। उनके विरुद्ध दक्षिण आफ्रिकी गणराज्यके व्यवहारसे मेरे मन में जितना रोष उत्पन्न होता है उतना, मैं नहीं जानता कि, उसके किसी अन्य कुकृत्य से उत्पन्न होता है। और इससे जो हानि होती है वह स्थानीय पीड़ितों तक ही सीमित नहीं है। जब ये गरीब लोग अपने देशको लौटेंगे और अपने मित्रोंको यह बतायेंगे कि महामहिम सम्राज्ञीकी सरकार, जो ३० करोड़ आबादी देश भारतमें ऐसी शक्तिशाली और दुर्धर्ष है, दक्षिण आफ्रिकाके एक छोटे-से राज्यसे उनकी शिकायत दूर कराने में असमर्थ है, तब आपके खयालले भारतमें क्या प्रभाव होगा?"