लॉर्ड सेल्बोर्न के विचार भी कम प्रभावकारी नहीं है:
"लॉर्ड महोदयने प्रश्न किया है: यह देखना हमारा कर्तव्य है या नहीं कि हमारे काले सहप्रजाजनोंसे ट्रान्सवालमें, जहाँ उन्हें जाने का पूरा अधिकार है, वैसा बर्ताव किया जाये जैसा व्यवहार करनेका महारानीने हमारी ओरसे वचन दिया है? यदि आप मुझसे सहमत हैं और यह मानते हैं कि हमें इन प्रश्नोंका उत्तर अपने देशवासियों और इतिहासके सम्मुख न्यासियोंके रूपमें देना है तो आप मुझसे इस बात में भी सहमत होंगे कि कर्तव्यका पथ भावनासे नहीं, बल्कि विशुद्ध तथ्योंसे नियन्त्रित होना चाहिए…हम समस्त संसारमें अपने बन्धुओंके न्यासी हैं…हम अपने विभिन्न जातियों और रंगोंके सह प्रजाजनों के भी न्यासी हैं…इन सबके और इनके बच्चोंके जिन्होंने अभी जन्म नहीं लिया है। इसलिए हमें ऐसे संकटकालमें जैसा यह है, जो फसौटी लगानी है वह कर्तव्यकी सीधी-सादी कसौटी है। यह देखना हमारा कर्तव्य है या नहीं कि इन लोगोंके, जिनका हमने उल्लेख किया है, अधिकारों और भावी हितों की रक्षा की जाये…क्या ब्रिटिश सरकार अपने नामका मान रखेगी और जो वचन उसने दिये हैं उनको सचाईसे पूरा करेगी? क्या वह यह देखेगी कि ब्रिटिश प्रजाजन चाहे संसार में कहीं भी जायें और चाहे वे गोरे हों या काले, उनको उनके वे अधिकार दिये जायेंगे जो उनकी महारानीने उनके लिए सुनिश्चित किये हैं?"
किन्तु यह ध्यान में रखना चाहिए कि गणतन्त्रकी सरकारके शासन में कानून ३ का अमल इतनी नरमी से किया जाता था कि वह लगभग अमल न होनेके बराबर ही था। जब ३ पौंड शुल्क दे दिया जाता था तो उसकी रसीद अवश्य दी जाती थी और उस शुल्कके अंकित होनेसे ही पंजीयन हो जाता था; किन्तु उसको अमल में लानेका गम्भीर प्रयत्न कभी नहीं किया गया। कुछ भी हो, वह केवल व्यापारियोंसे लिया जाता था और उनमें भी सबसे नहीं। किन्तु सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात, मुख्यतः वर्तमान 'पंजीयन' विवादको देखते हुए, यह है कि यद्यपि 'पंजीयन' शब्दका प्रयोग इस ३ पौंडी शुल्ककी अदायगी और वसूलीके सम्बन्धमें किया जाता था, किन्तु उसमें व्यक्तिगत शिनाख्त जैसी कोई बात, जो ट्रान्सवाल-विलयके बाद उत्पन्न होनेवाली एक बिलकुल नई बात है, कभी नहीं होती थी। इसके अतिरिक्त ढिलाईके साथ लगाये गये ३ पौंडके करके सिवा एशियाई प्रवासियोंपर कोई प्रतिबन्ध न था। इस सम्बन्धमें कप्तान हैमिल्टन फाउलकी, जो १९०३ में एशियाई पंजीयक थे, रिपोर्ट ज्ञानवर्धक है। रिपोर्ट में कहा गया है कि:
"तीनको छोड़कर, एशियाइयोंकी कोई पंजिका या उनके कोई अन्य कागजात, जो पिछली बोअर सरकारने रखे थे (यदि ऐसे कागजात कभी रखे गये हों तो) किसी जिलेमें नहीं मिले।"
ट्रान्सवालके वे ब्रिटिश भारतीय, जिनमें से अधिकतर निस्सन्देह युद्धकालमें देशसे चले जानेके लिए बाध्य कर दिये गये थे, प्रिटोरियापर ब्रिटिश ध्वज लहराते ही इत्मीनानके साथ कानून ३ की वापसीकी आशा करते थे। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। सचमुच, अपनी ब्रिटिश नागरिकता के कारण वे बोअरोंके कानूनके कई तर्क-सम्मत परिणामोंसे बच गये थे; किन्तु कानून ३ फिर भी परेशान करता था, क्योंकि उसने उनपर हीनता की छाप लगा दी थी और सिद्धान्ततः ही सही, उनको केप और नेटालमें, जहाँ से उनमें से बहुतसे लोग आये थे, जो दर्जा प्राप्त था उससे उनका दर्जा नीचा कर दिया था।
यद्यपि १८८५ के कानून ३ की जिस धारासे भारतीयोंको नागरिकता के अधिकार प्राप्त करनेसे वंचित किया जाता था, उसको निस्सन्देह कठोरतासे अमल में लाया जाता था, तथापि उनको उन गलियों, मुहल्लों और बस्तियोंमें, जिनका निर्देश किया जाये, हटाने की बात गणतन्त्रीय सरकारके शासनमें कभी लागू नहीं की गई।
विलय के बाद
ट्रान्सवाल-विलयका सबसे पहला प्रभाव जो ब्रिटिश भारतीयोंपर हुआ, उन एशियाइयोंका निष्कासन था जो यह न सिद्ध कर सकें कि वे युद्ध पूर्वके वैध अधिवासी हैं। १९०२ में नई सरकारने "सुव्यवस्था और सुशासन एवं सार्वजनिक सुरक्षाको कायम रखने" के लिए शान्ति-रक्षा अध्यादेश (१९०३ के कानून ५ द्वारा संशोधित रूपमें १९०२ का ३८ वाँ कानून) के नामसे एक कानून बनाया। फौजी शासन वापस ले लिया गया था और