भारतीय नेताओंने बार-बार अपील की कि एक जाँच आयोगकी नियुक्ति की जाये और यदि कोई सन्देह वस्तुतः हो तो उनका उस जाँचसे सदाके लिए निराकरण करा दिया जाये। किसी अज्ञात कारणसे इस बहुत ही विवेकपूर्ण सुझावकी लगातार उपेक्षा की गई है।
नये पंजीयन अधिनियमकी आवश्यकता और पर्याप्तताका अन्दाज करते समय यह स्मरण रखा जाये कि शान्ति-रक्षा अध्यादेश, जिसके द्वारा कप्तान हैमिल्टन फाउल नये एशियाइयोंके प्रवेशको प्रभावपूर्ण ढंगसे रोक सके, अब भी अमल में आ रहा है और उसके अन्तर्गत अवैध प्रवेशकर्ताओंको भारी सजाएँ दी जाती है; पुनः प्रवेशके प्रार्थी एशियाई तबतक उपनिवेशके बाहर रोक रखे जाते हैं जबतक उनके पुनः प्रवेशके अधिकारकी कड़ी खोजबीन नहीं कर ली जाती। तर्कके लिए मान लीजिए, यदि इस तरह चोरीसे अधिक संख्या में प्रवेश होता है, जैसा बताया जाता है, तो उसको रोकनेके लिए नये कानूनमें कोई अतिरिक्त साधन नहीं दिया गया है। कानूनसे केवल वैध अधिवासी एशियाइयोंपर छाप लगाई जाती है। इससे अनधिकृत प्रवेशकर्ता पर ज्यादासे ज्यादा यह प्रभाव पड़नेकी सम्भावना है कि देशमें चोरीसे आनेके बाद उसका पता लग जायेगा; किन्तु इससे यह मान लिया जाता है कि अपराधी शिनाख्त के लिए बुलाये जानेपर पेश हो जायेगा। यदि वह ऐसा न कर सके तो पंजीयन अधिनियम के अन्तर्गत उसका पता लगानेके लिए उससे ज्यादा कुछ नहीं किया जा सकता जितना शान्ति-रक्षा अध्यादेश के अन्तर्गत किया जा सकता था, और तब केवल शस्त्र यह रह जाता है कि जिनके पास नया पंजीयन प्रमाण-पत्र न हो उन्हें व्यापारिक परवाने न दिये जायें। इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि थोड़ेसे चोरीसे आनेवाले लोगोंको खोज निकालनेके लिए वैध अधिवासी भारतीयोंके समुदायपर—जिसमें व्यवसायी, छोटे व्यापारी, धोबी, आदि अच्छी ख्यातिवाले और देशमें बहुत समयसे रहनेवाले लोग हैं, हीनताकी छाप लगा दी जायेगी और उनका दर्जा प्रतिबन्धोंके साथ रिहा अपराधियोंका बना दिया जायेगा। संदिग्ध अपराधका पता लगाने में सुविधा देनेके लिए निरपराध लोग कष्ट भोगेंगे।
अधिनियमका सच्चा स्वरूप दिखानेके लिए उसके साथ अपमानजनक नियम जोड़ दिये गये हैं और उनको जो प्रमुखता दी गई है उसका प्रयोग भारतीयोंकी मुख्य दलीलकी ओरसे ध्यान हटानेके लिए किया गया है। उनकी भावुकता के सम्बन्धमें अत्युक्ति की जाती है और उसका यह कहकर मजाक उड़ाया जाता है कि उनसे एक कागजपर अँगुलियोंके निशान माँगनेपर ही उनको अपनी भावनाका तिरस्कार अनुभव होता है। यद्यपि वकील, डॉक्टर, प्रसिद्ध और पुराने व्यापारी और वैसे ही सच्चरित्र फेरिए भी सम्भवत: इस प्रकार अपमानजनक ढंगले की जानेवाली बारीक और व्यक्तिगत शिनाख्तको, जो उनकी ईमानदारी और मुख्यातिपर गम्भीरतम लांछन लगाती है, अकारण ही आक्षेपजनक मानते हैं ऐसा नहीं है, तथापि यह बिलकुल स्पष्ट है कि विनियम—स्वयं भले ही अप्रिय हों—किन्तु वे केवल आकस्मिक माने जाते हैं और ब्रिटिश भारतीयोंने जो आपत्ति की है, उसका मूल कारण उसके अमलकी तफसीलें नहीं, बल्कि स्वयं अधिनियम ही है। जैसा पहले कहा जा चुका है, भारतीय कानूनको मान लेनेसे यह समझते हैं मानो ब्रिटिश भारतीयों के इस विशेष भागपर अनिवार्य कानूनी छाप लगा देने से उनका जातीय दर्जा गिर गया हो। ट्रान्सवाल ब्रिटिश भारतीय संघके अध्यक्ष श्री ईसप इस्माइल मियाँने सार रूपमें मामले को इस प्रकार पेश किया है:
"यदि अँगुलियोंकी निशानियोंकी जगह हस्ताक्षर कर दिये जाते तो भी मेरे संघका रुख किसी प्रकार बदला न होता। अधिनियम में बाध्यताका जो बैंक समाया है उसीसे समाजमें इतना रोष उत्पन्न होता है और उसे वह इतना दुस्सह लगता है…। उसमें जो सजा और कठोरता है उसपर रोष प्रकट नहीं किया जाता, बल्कि उसके पीछे छिपी हुई उस मान्यतापर किया जाता है कि समस्त भारतीय समाज ही अपना व्यक्तित्व छिपाने में और इस देशमें चोरीसे अनधिकृत प्रवासियोंको लाने में सक्षम है…। सबसे अधिक आपत्ति इस बातपर की जाती है; और मेरा खयाल है कि यह उचित ही है…। यह भली भाँति जानते हुए कि ब्रिटिश भारतीय एक वर्गके रूपमें ऊपर बताये गये कार्यों के अपराधी नहीं हैं, वे मर्दानगी के साथ उस मान्यतासे बचनेके लिए संघर्ष करते हैं जो कानूनमें निहित है और जिसकी घोषणा कानूनके निर्माता अपने विश्वासके रूपमें खुल्लम-खुल्ला करते हैं।