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सम्पूर्ण गांधी वाङ्‍मय


इस सिद्धान्तकी रक्षा के लिए अपनी व्यक्तिगत और जातीय प्रतिष्ठाको कायम रखनेके उद्देश्यसे महामहिम सम्राट् के लगभग १३,००० राजभक्त प्रजाजन गम्भीरतापूर्वक जेल जाने और अपनी सांसारिक सम्पत्तिकी एवं स्वयं स्वतन्त्रताकी भी हानि सहने की शपथ ले चुके हैं। प्राय: यह व्यंग्य किया जाता है कि भारतीयोंमें अपनी दूकानों और अपने लाभके अतिरिक्त कोई आत्मा नहीं होती। क्या इस व्यंग्यका इससे अधिक जोरदार कोई दूसरा उतर दिया जा सकता है?

प्रवासी प्रतिबन्धक विधेयक एशियाई-विरोधी कानूनोंके रूपमें ट्रान्सवालकी नवीनतम उपज है। जो शान्तिरक्षा अध्यादेश "सुव्यवस्था और सुशासन एवं जन-सुरक्षाको कायम रखनेके लिए सैनिक कानूनकी वापसीको ध्यानमें रखकर" बनाया गया था, उसको एक ऐसे ब्रिटिश उपनिवेशकी, जहाँ अब वे मन्त्री राज्य करते हैं जो अभी कुछ पहले हमसे लड़ रहे थे, विधान संहितामें कायम रखना असंगत है और इसी असंगतिके कारण उसका जल्दी रद किया जाना आवश्यक हो गया। यह कार्य प्रवासी प्रतिबन्धक विधेयकके खण्ड (१) से सम्पन्न होता है, किन्तु इस खण्डके अन्तमें यह ध्यान देने योग्य शर्त है:

१९०७ के एशियाई कानून संशोधन विधेयकसे ऐसे कोई अधिकार या अधिकार क्षेत्र रद या कम न होंगे जो उस अधिनियमको "कार्यरूप देनेके उद्देश्यसे दिये गये हैं; बल्कि उक्त अध्यादेश उस अधिनियम के सब उद्देश्योंकी पूर्ति के लिए पूर्णतः लागू माना जायेगा।"

दूसरे शब्दोंमें शान्ति-रक्षा अध्यादेशकी शर्तें केवल एशियाइयोंपर लागू करनेके लिए कायम रखी गई हैं।

इस विधेयकसे पंजीयन कानूनको स्थायित्व मिलता है। उसमें उन ब्रिटिश भारतीयोंके निवासके अधिकार की उपेक्षा की गई है, जो युद्धसे पूर्व ट्रान्सवालमें बस गये थे और जिनमें से बहुतसोने १८८५ के कानून ३ के अन्तर्गत उस निवासके मूल्यके रूपमें ३ पौंड भी दे दिये थे; किन्तु जो किसी-न-किसी कारणसे अभी देश में नहीं लौटे हैं।

इसमें देशमें प्रवेशकी योग्यताएँ बताते हुए शिक्षा परीक्षा के रूपमें यूरोपीय भाषाओं और यहूदी-भाषा यीडिशके अतिरिक्त अन्य सब भाषाओंको छोड़ दिया है।

इसके अनुसार उन भारतीय प्रवेशार्थियोंको भी, जो विधेयकमें दी हुई परीक्षा में उत्तीर्ण हो जायें, एशियाई कानून संशोधन अधिनियम के अन्तर्गत पंजीयन कराना होगा—उस एशियाई कानून संशोधन अधिनियमके अन्तर्गत जिसके पंजीयन सम्बन्धी नियम प्रकटतः अधिकांश देशवासी एशियाइयोंकी कल्पित निरक्षरताके कारण बनाये गये थे।

विधेयकके विरोधी बहुत-सी युक्तियों के साथ यह तर्क देते हैं कि जो भारतीय यूरोपीय भाषा शिक्षा परीक्षा पास करने योग्य पर्याप्त रूपसे जानते हैं वे भी अपने साथ शिनाख्त के काफी निशान रखें और चूँकि सांस्कारिक शिक्षण प्राप्त किसी भी भारतीयका उसकी शर्तोंको मानना कल्पनागम्य नहीं है, यह नियम भारतीयोंको विधेयककी शिक्षा-सम्बन्धी धाराके लाभसे वंचित करने और इस प्रकार उनको देशमें आनेसे रोकनेका एक अप्रत्यक्ष तरीका है।

विधेयक में उन भारतीय व्यापारियोंको, जो ट्रान्सवालमें बस गये हैं, अपने मुनीम, सहायक, और अपने व्यवसाय और घरेलू काम-काजको चलाने के लिए आवश्यक नौकर लानेकी सुविधाएं देनेकी कोई व्यवस्था नहीं है। खण्ड (६) के उपखण्ड (ग) में एशियाई कानून संशोधन अधिनियममें अप्रत्यक्ष सुधार करनेका एक चालाकीभरा प्रयत्न किया गया है। यह ध्यान देने योग्य है। अधिनियममें कानूनको न माननेवाले एशियाइयोंको उपनिवेश से जानेका नोटिस देनेके बाद जुर्माने और कैदकी सजाएँ देनेकी व्यवस्था है वैसे ही शान्ति-रक्षा अध्यादेश में ऐसा ही देशसे जानेका नोटिस देनेका अधिकार दिया गया है। इस विधेयकके उपखण्ड (ग) में इन दोनोंसे आगे बढ़कर महत्त्वपूर्ण कदम उठाया गया है। इसमें स्थानीय सरकारको किसी भी व्यक्तिको, जो एशियाई कानून संशोधन अधिनियम के अन्तर्गत दिये गये नोटिसको भंग करे, उसके खर्चेपर जबर्दस्ती निर्वासित करनेका अधिकार दिया गया है। इस कानूनके वास्तविक स्वरूपको तबतक उचित रूपसे नहीं समझा जा सकता जबतक विधेयक में "निषिद्ध प्रवासी" की परिभाषापर एक संक्षिप्त दृष्टि न डाली जाये। जो एशियाई पुरुष या स्त्री बोलकर लिखानेपर या अन्यथा किसी यूरोपीय भाषामें लिखने में असमर्थ हो उसका वर्गीकरण निरक्षरों, कंगालों, वेश्याओं और ऐसे ही व्यक्तियोंके साथ किया गया है और उस व्यक्तिके साथ भी जो, यदि उपनिवेशमें आये तो, "उस