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सम्पूर्ण गांधी वाङ्‍मय

रखते हैं वे ही कोई ऐसी निश्चित सम्मति देकर उससे बँध सकते हैं। कुछने विशुद्ध तटस्थ भावनासे विजेता पक्षका बहुत बड़ी बहुसंख्याका, खानों और कारखानोंके वर्गोंका साथ देना नहीं चाहा है। किन्तु ऐसी सर्वसम्मत स्वीकृति की बात मान भी लें, तो भी क्या यह गम्भीरता से कहा जा सकता है कि युद्ध से पूर्व दिये गये वचन और वादे, प्रकट और निहित, जिनसे यह देश बँधा है, उच्छृंखलतापूर्वक त्याग दिये जाने चाहिए और ट्रान्सवाल के जनवर्गका एक भाग जो दुर्बल है, हमारे ही झण्डेके नीचे दूसरे भाग के कहनेसे, जो मजबूत है, निर्दयतापूर्वक कुचल दिया जाना चाहिए और उसका कतई कोई दर्जा न रहने दिया जाना चाहिए?

जो लोग एशियाइयोंके निष्कासनके लिए शोर मचाते हैं, उनके आरोपोंकी विस्तृत जाँच यदि इस लघु पुस्तिकाकी मर्यादामें करनी सम्भव होती तो वह दिलचस्प होती। उनके आरोपोंमें ऐसे तर्क हैं जैसे "रहन-सहनके दर्जे में गिरावट" और "अनुचित स्पर्धा" एवं यह कि "एशियाई यूरोपीय उपनिवेशियों में कभी घुल-मिल नहीं सकते और फलत: इस राष्ट्र-शरीरमें गूँथे नहीं जा सकते।" पहले आरोपके सम्बन्ध में यह संक्षेपमें कह दें कि ब्रिटिश भारतीय ट्रान्सवालके खनक-वर्गसे स्पर्धा नहीं करते, और न इस उपनिवेशमें भारतीय कुली ही हैं। एशियाई आबादी में बहु-संख्या दूकानदारों और व्यापारियोंकी है जिनमेंसे ८८- १/२ प्रतिशत ब्रिटिश भारतीय हैं। यह सच है कि ये दूकानदार और व्यापारी चतुर व्यवसायी, धैर्यवान, लगनवाले और उद्योगी हैं; किन्तु अपने गोरे प्रतिस्पर्धियोंके समान उन्हें कर और किराया देना होता है, वे अपनी आयके बड़े भागसे यहीं थोक (यूरोपी) आयातकोंमें लेनदेन करते हैं, और प्रायः चिकित्सकों, वकीलों और मिस्त्रियों आदिकी सेवाएँ प्राप्त करते हैं। यह सच है कि वे खानपान में संयमी होते हैं, मुख्यतः मयके सम्बन्धमें, वे अपेक्षाकृत अलग-अलग रहते हैं और अपनी सम्पतिका अपव्यय नहीं करते। उनका व्यापार मुख्यतः समाजके अपेक्षाकृत निर्धन वर्गोंसे होता है और यह मानी हुई बात है कि उनकी स्पर्धाके कारण जीवन निर्वाहकी आवश्यक वस्तुओंका मूल्य नीचा रहा है।

भारतीयोंका रहन-सहन निकृष्ट होता है, यह एक मूर्खतापूर्ण भ्रम है। यह भ्रम इस कारण उत्पन्न हुआ है कि सामान्य यूरोपीय लोग पूर्वीय देशोंके भोजनके उत्तम व्यंजनोंको सराह नहीं पाते। ऐसे मामलों में तुलना विशेष रूपसे घृणास्पद होती है और जो तुलना करते हैं प्रायः उनके लिए खतरनाक भी होती है। तथ्योंकी निकटतर जानकारीसे प्रकट हो जायेगा कि भारतीय आहार महँगा नहीं है। कदाचित् यह उचित रूपसे पूछा जा सकता है कि क्या निर्धनतम भारतीय फेरीवालोंका भी सुख-सुविधाका स्तर निर्धन गोरोंके दुःखजनक रूपसे बढ़े हुए समुदायकी अपेक्षा नीचा है। उन निर्धन गोरोंमें बिजवानर, सीरियाई और अकुशल रूसी उल्लेखनीय हैं और इनमें जो रूसी अधिक पुराने गोरे व्यापारियोंसे स्पर्धा करते हैं उनकी संख्या कम नहीं होती। और न इस बातसे ही इनकार किया जा सकता है कि भारतीय दूकानें हर तरह यूरोपीय पड़ोसियोंकी दुकानोंकी अपेक्षा अधिक अच्छी होती हैं। भारतीय जिन व्यापारियोंसे व्यापार करते हैं उनके साथ बर्तावमें उनकी ईमानदारीपर और उनकी ऊँची प्रतिष्ठापर निश्चय ही आक्षेप नहीं किया जा सकता। उनकी आदतोंको गन्दा बताया गया है और उनपर आक्षेप किया गया है। लेखकको इस आक्षेपकी असत्यताके सम्बन्धमें अपनेको आश्वस्त करनेके असाधारण अवसर मिले हैं। १९०३-४ के प्लेगके दिनोंमें यह आरोप खास जोर-शोरसे लगाया गया था और विशुद्ध आत्मरक्षा की दृष्टिसे स्वतन्त्र चिकित्सा विशेषज्ञों से निष्पक्ष जाँच करवाना आवश्यक हो गया था। उनके प्रमाण-पत्रोंसे निश्चित रूपसे सिद्ध हो गया था कि भारतीयोंकी दूकानों और मकानोंकी बनावट और उनकी सामान्य व्यवस्था कमसे कम सामान्य व्यापारीसे अच्छी थी। यह सत्य है कि जोहानिसबर्गकी सीमापर स्थित पुरानी बस्ती, जो बादमें नष्ट कर दी गई, उत्तरदायी अधिकारियों द्वारा सफाईके मामलेमें इतने लज्जाजनक रूपसे उपेक्षित रही थी कि वह सचमुच प्लेगका घर ही बन गई थी किन्तु वहाँ प्लेगका उन्मूलन कर दिया गया जो बहुत-कुछ उसके निवासी भारतीयों के अथक प्रयत्न, त्याग और सहयोगका परिणाम था।

भारतीय शेष समाजमें न मिलेंगे, यह तर्क तो उस लड़केकी कहानीको पुनरावृत्तिमात्र है जिसने मेंढकको इसी अपराधमें दण्ड देकर मार दिया था कि वह मेंढक है। ट्रान्सवालके भारतीयोंपर कानून द्वारा अस्पृश्यता की छाप लगा दी गई है। उनके साथ अमलमें अछूतोंका-सा व्यवहार किया जाता है। स्पष्ट शाब्दिक अयथार्थताका