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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 7.pdf/५५१

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परिशिष्ट

खयाल किये बिना वे सभी 'कुली' कहे जाते हैं। सरकारी क्षेत्रों तक ऐसे शब्दप्रयोग मिलते हैं जैसे, 'कुली वकील', 'कुली डॉक्टर', और 'कुली व्यापारी'। उनकी स्त्रियाँ 'कुली स्त्रियाँ' हैं। जैसा बताया जा चुका है, उनका जीवनमें कोई स्थान नहीं है, यदि है तो मेहरबानीके तौरपर वे भले ही अपने नाम किसी अचल सम्पत्तिकी रहन करा लें; किन्तु फिर भी वे उसके स्वामी नहीं हो सकते। उनको नगरपालिकाकी जिन ट्रामोंमें और सरकारकी जिन रेलोंमें गोरे बैठते हैं उनमें कभी-कभी बैठनेका साधारण अधिकार भी नहीं दिया जाता। उनके बच्चे काफिरोंके लिए निर्धारित स्कूलोंमें पढ़ने जाते हैं, इसके अतिरिक्त उनको शिक्षाकी कोई सुविधाएँ नहीं दी जातीं। क्या भारतीयोंको समाजके बृहत्तर जीवनमें अधिक निकटता से घुलने-मिलने और सम्मिलित होनेमें इससे अधिक भी हतोत्साहित किया जा सकता है?

इस निष्कर्षसे बच निकलना कठिन है कि भारतीयों के प्रति रोषका निचोड़ इस तथ्य में आ जाता है कि उनमें उन लक्षणोंकी बहुलता है जो यदि उनके निन्दकोंमें हुए होते तो अनुकरणीय और सराहनीय गुण माने जाते। दुर्भाग्यसे दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय अपनी शान्ति और सुरक्षाको कायम रखनेके लिए केवल लकड़हारे और पनिहारे बनकर रहनेमें सन्तुष्ट नहीं हैं। परिस्थितियाँ विपरीत होनेपर भी वे छोटेसे आरम्भसे अपेक्षाकृत समृद्धि प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं। प्रायः वे अपने बेटोंको हमारे विश्वविद्यालयोंमें भेज सकते हैं। उनकी सच्ची रोष उत्पादक बातें ये ही हैं। वे अपनी स्थितिसे आगे बढ़ने का साहस करते हैं। यदि वे केवल अकुशल मजदूरोंकी कमी पूरी करके या अपने गोरे सह-उपनिवेशियोंके लिए लाभ कमाकर सन्तुष्ट हो जाते एवं अपनी कमाईको खर्च करते रहते जिससे गोरोंको लगातार उतने ही मजदूर मिलते जाते तो उनकी उपस्थितिका स्वागत ही न किया जाता वरन् उनकी प्रशंसाके पुल बाँध दिये जाते। यदि इसमें कुछ सन्देह हो तो समीपस्थ नेटाल उपनिवेशमें देखें; एक ओर तो अच्छी स्थितिके भारतीयोंके विरुद्ध चीख-पुकार बढ़ती जाती है, दूसरी ओर उपनिवेशकी सरकार भारतीय कुली मजदूरोंका आयात बन्द करनेसे लगातार इनकार कर रही है।

ट्रान्सवालकी गणतन्त्रीय सरकारके विरुद्ध उत्तरदायी अंग्रेज मन्त्री हमारी ओरसे जो माँगें कर रहे हैं, उनकी तुलना में हमारे इन मुट्ठी भर भारतीय सह-प्रजाजनोंकी माँगें बहुत ही कम हैं। अपने गोरे साथी उपनिवेशियोंके पूर्वग्रहों का खयाल करके भारतीय लोग नगरपालिका मताधिकार या राजनीतिक मताधिकारकी माँग नहीं करते। विशाल दृष्टिसे, जो अधिक सहानुभूतिपूर्ण सराहनाके योग्य है, भारतीय लोग, विस्तृत वतनी आबादीपर राज करनेवाली थोड़े-से गोरे-अल्पसंख्यकों की सरकारके सम्मुख प्रस्तुत, कठिनाइयोंको स्वीकार करते हैं। फलस्वरूप वे उपनिवेशको गोरोंके दिमागोंपर और हाथोंमें छोड़नेके लिए रजामन्द हैं। वे केवल इतना ही चाहते हैं कि उनके साथ साम्राज्यके सभ्य, भले ही वे रंगदार हों, नागरिकोंके योग्य सम्मान और लिहाजके साथ बर्ताव किया जाये एवं उनको अपमान, अप्रतिष्ठा और विनाशसे बचाया जाये। उनकी माँग यह नहीं है कि एक नये उपनिवेशके द्वार एशियाई प्रवासियोंको अन्धाधुन्ध भरमारके लिए खोल दिये जायें। किन्तु उनका कहना यह अवश्य है कि भावी प्रवासियोंके लिए जो शिक्षाकी कसौटी लागू की जाये वह उचित हो और वह विशेष रूपसे भारतीयोंके ही विरुद्ध प्रयुक्त न की जाये। उदाहरणार्थ उनकी माँग यह है कि हिन्दुस्तानी और गुजरातीको कमसे-कम यीडिशके समान आधारपर तो रखा जाये। किन्तु वे एक मूल अधिकारके रूपमें यह चाहते हैं कि जो भारतीय वैध निवासी हैं उनको पहलेसे ही जन्मतः हीन और अपराधी भेदभावकारी कानूनसे बचाया जाये। वे व्यापारिक परवाने जारी करनेका नियमन और नियंत्रण एवं सफाईके अत्यन्त कड़े नियम लागू करनेका अधिकार नगरपालिकाओंको देनेकी बात मानते हैं; किन्तु वे यह पूछते हैं कि अचल सम्पत्तिका स्वामित्व प्राप्त करनेकी उनकी असमर्थता किस आधारपर स्थायी बनायी जा रही है? उदाहरणार्थ वे उस स्थानको क्यों नहीं खरीद सकते जिसमें वे अपना व्यवसाय चलाते हैं? निःसन्देह ट्राम और रेलके कानून-कायदे, जिनके अनुसार वे उन डिब्बोंका और गाड़ियों का उपयोग नहीं कर सकते जिनका उपयोग गोरे करते हैं एवं वे उपनियम जिनके अन्तर्गत उनके लिए पैदल-पटरियोंका प्रयोग निषिद्ध है, निश्चय ही एक ब्रिटिश उपनिवेशके अयोग्य हैं। पंजीयनके मामलेमें भी भारतीयोंने समझौते की स्वाभाविक इच्छाके साथ समझौतेका प्रस्ताव किया। चूँकि ट्रान्सवाल सरकारने अपनी एशियाई आबादीके पुनः पंजीयनको इतना महत्व