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सम्पूर्ण गांधी वाङ्‍मय

दिया है, इसलिए, और अपनी नेकनीयती सिद्ध करनेके लिए भी, भारतीय समाजने आगे आने और स्वेच्छासे पुनः पंजीयन करानेका प्रस्ताव किया है। उन्हें जो अधिकारपत्र प्राप्त हैं उनको दूसरे प्रमाणपत्रोंसे बदलने के लिए और अति महत्वपूर्ण अँगूठा निशानी देनेके लिए भी वे तैयार हैं। इसके अतिरिक्त उनका यह कहना है कि सरकार बादमें एक छोटा अधिनियम भी बना सकती है जिसमें केवल नये प्रमाणपत्र ही वैध माने जायें जो इस प्रकार दिये गये हों।

इस प्रस्तावित समझौते और अधिनियम के अनुसार किये गये पुनः पंजीयनका अन्तर पर्याप्त स्पष्ट ही है स्वेच्छया पंजीयनमें बाध्यताका डंक नहीं होगा और वह एक सम्मानास्पद कार्य होगा, जिसे एशियाई समाज गोरोंकी भावनाके सम्मानार्थ सम्पन्न करेगा और उनकी यह भावना कालान्तर में बदल सकती है। यह माना जाता है कि अनिवार्य पंजीयन भारतीयोंका दर्जा काफिरोंके बराबर होने का सूचक है, उससे कमका सूचक नहीं और यह बहुत सम्भव है कि उसको पड़ोसी उपनिवेश भारतीय-विरोधी कानून बनाने के लिए उदाहरण के रूपमें काममें लायें, एवं रंगदार बस्तियोंमें वह अनिवार्य पृथक्करणको सम्मानित भूमिका बन जाये।

बोअर गणराज्यमें और उसके विलयके बाद ब्रिटिश भारतीयोंकी जो स्थिति थी, तुलनात्मक स्तम्भोंके रूपमें यहाँ उसका सारांश अप्रासंगिक न होगा बल्कि उससे ज्ञान-वृद्धि ही होगी:

बोअर शासन में ब्रिटिश अधिकारके बाद
एशियाई उपनिवेश में स्वतन्त्रतासे आ सकते थे और १८८५ के बाद ३ पौंड कर देनेपर रह सकते और व्यापार कर सकते थे। केवल वे एशियाई पुनः प्रविष्ट किये गये हैं जो यह सिद्ध कर दें कि वे युद्ध से पूर्व यहाँ रहते थे।
१८८५ के कानून ३ ( १८८६ में संशोधित) के अन्तर्गत "पंजीयन" में हुलिया देना सम्मिलित न था, उसमें केवल ३ पौंड शुल्ककी अदायगी और उसकी रसीद रखने की बात थी। एशियाइयोंने १९०३ में जो स्वेच्छया "पंजीयन" लॉर्ड मिलनरकी सलाहसे स्वीकार किया था, उसमें बहुत विस्तृत हुलियाकी बात सम्मिलित थी।

१९०७ के अधिनियम के अन्तर्गत पुनः पंजीयन अनिवार्य है और उसकी तफसील और भी अपमानजनक है। यह आठ वर्षसे अधिक आयुके सब बच्चोंपर लागू होता है। पुन: पंजीयन न करानेपर जुर्माना, कैद और निष्कासनकी सजाएँ दी जाती हैं।

एशियाइयोंको नागरिक अधिकार नहीं दिये गये थे। एशियाइयोंको, जिनमें ब्रिटिश भारतीय भी हैं, राजनीतिक और नगरपालिका के अधिकारोंसे वंचित कर दिया गया है। एशियाई अचल सम्पत्ति नहीं रख सकते। अब भी यही स्थिति है।
एशियाई उन गलियों और बस्तियोंसे हटाये जा सकते थे जो इसके लिए विशेष रूपसे निश्चित की गई हों। एशियाई, जिनमें भारतीय भी हैं, अब भी हटाये जा सकते हैं और उनको इस प्रकार पृथक किये जानेकी धमकी दी भी जा चुकी है।
जब कि उक्त निर्योग्यताएँ जिस कानून ३ के अन्तर्गत लागू होती थीं वह तश्वतः अमल में नहीं लाया जाता था; महामहिम सम्राट्की सरकार उनकी रक्षा करती थी। विलयके बाद और विशेष रूपसे उत्तरदायी शासनकी प्राप्तिके बाद, ब्रिटिश भारतीयोंको सम्राटका यह संरक्षण नहीं मिल सका है।