उतनी ही मदद भी मिल रही है। श्रीमती काशीबाई देवधर, श्रीमती नामजोशी, श्रीमती आठवले तथा श्रीमती देशपाण्डे, ये सब बहनें, जिन्होंने उत्तम अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की है, मदद करती हैं। इसके अलावा वे गाँव-गाँव घूमकर चन्दा इकट्ठा करती हैं। ऐसे काम हम अपने खुदके श्रमसे इतने ज्यादा कर सकते है कि उनमें सरकारकी मददकी जरूरत ही नहीं रहती। चतुर्मुखी शिक्षाकी हमें खास जरूरत है।
१८. जोहानिसबर्गकी चिट्ठी
नया कानून
यह कानून अभी 'गज़ट' में प्रकाशित नहीं हुआ है। इसी बीच विलायतसे आये हुए तारोंसे मालूम होता है कि बड़ी सरकार अब भी उस सम्बन्धमें विचार कर रही है। लॉर्ड ऐम्टहिलने लॉर्डसभामें बहस शुरू की और लॉर्ड लैन्सडाउनने कहा कि ट्रान्सवालमें बिना अनुमतिपत्रके कुछ भारतीयोंके घुस जानेकी अपेक्षा सारे समाजका अपमान करना ज्यादा खतरनाक है। लॉर्ड एलगिनने उत्तरमें कहा कि नये कानूनपर हस्ताक्षर करना उन्हें अच्छा नहीं लगा। इसका मतलब यही हुआ कि भारतीय समाजको कानूनकी शरण नहीं जाना है। कानूनपर इतनी सख्त बहस हुई और उसकी इतनी छीछालेदर की गई है कि अब उसके सामने झुकनेमें भारतीय समाजकी बड़ी बेइज्जती है।
ट्रान्सवालके छींटे
इस कानूनका प्रभाव यहीं पड़ रहा हो सो बात नहीं। इसके छींटे जर्मन पूर्व आफ्रिका तक पहुंचे हैं। जर्मन पूर्व आफ्रिकाके जर्मन लोग भारतीय व्यापारियोंसे लाभ तो पूरा उठाना चाहते हैं किन्तु देना बिलकुल नहीं चाहते। कुछ जर्मन इसलिए डर गये हैं कि यदि भारतीय व्यापारियोंको कष्ट होगा तो अंग्रेज सरकार हस्तक्षेप करेगी। इसके जवाबमें जर्मन संसदके एक सदस्यने यह कहा है कि जब अंग्रेज सरकार ट्रान्सवालके मामलेमें हस्तक्षेप नहीं करती तब जर्मन लोगोंके मामलेमें क्यों करेगी? इसका मतलब भी यही निकलता है कि भारतीय समाजने जहाँ नया कानून स्वीकार किया, समझ लीजिए तुरन्त ही विदेशोंसे उसके पैर उखड़ जायेंगे। फिर तो वे ही भारतीय बाहर रह सकेंगे जो मजदूरी करके प्रतिष्ठा-रहित जीवन बिताना चाहते हों।
एक प्रमुख गोरेकी सलाह
ट्रान्सवाल संसदके एक बड़े सदस्यसे मेरी मुलाकात हुई थी। उससे मैंने जेलके प्रस्तावके सम्बन्धमें पूछा। उसने तुरन्त उत्तर दिया कि यदि आप लोग जेल जायें तो फिर
[१](१८६९-१९३६); मद्रासके गवर्नर, १८९९-१९०६; देखिए "लॉर्ड ऐन्टहिल", पृष्ठ ६५।
[२](१८४५-१९२७); भारतके वाइसराय और गवर्नर जनरल, १८८८-९३, विदेश मन्त्री, १९००-६।
[३]उपनिवेश-मन्त्री, १९०५-८।