बिकनेवाले अनुमतिपत्रोंको रोकना नहीं, बल्कि भारतीय समाजपर खुलेआम कलंक लगाना है। कलंकित करनेका उद्देश्य जाहिर हो, इसके पहले मैं आपको लॉर्ड ऐम्टहिलके शब्दोंकी याद दिलाता हूँ। उन्होंने कहा है: “इस कानूनसे हमारी (ब्रिटिश) प्रजाकी आबरू जाती है, इतना ही नहीं है। हम अपने भारतीय नागरिकोंके साथ वचनसे बँधे हुए है कि उन्हें हर तरहसे हमारे समान हक है। यह वचन उन्हें हमारे सम्राट्ने दिया है। हमारे अधिकारियोंने भी यही कहा है। और महान भारतका कारोबार भी इसी नीतिपर चल रहा है। हम उन्हें ब्रिटिश राज्यके नागरिक बनने में अभिमान महसूस करने के लिए कहते हैं। हम उन्हें समय-समयपर कहते रहते हैं कि वे भारतमें चाहे जिस पदपर पहुँच सकते हैं, और अपने व्यवहारके द्वारा हम उन्हें विश्वास कराते हैं कि वे चाहे जिस देश में हों, पूरी तरह ब्रिटिश नागरिकके रूप में माने जायेंगे।"
इस कानूनसे लॉर्ड लैन्सडाउनको अत्यन्त शर्म मालूम होती है और उनके मनमें ट्रान्सवालकी स्थितिकी अपेक्षा भारतके अपमानका प्रश्न ज्यादा है। मैंने जो सुझाव दिया है उससे ट्रान्सवालकी स्थितिको कोई खतरा नहीं पैदा होता और नये कानूनसे जिस प्रकार अनुमतिपत्ररहित लोगोंको आनेसे रोका जा सकता है उसी प्रकार इस सुझावके अनुसार चलकर भी हो सकता है।
सरकार यदि इस प्रकार न करे तो इसका यह साफ अर्थ है कि नये कानूनका उद्देश्य भारतीय कौमको पछाड़नेके सिवा और कुछ नहीं है। तब तो भेड़ और भेड़ियेवाली बात ही रही। चाहे जिस प्रकारसे भेड़ियाभाईको भेड़के प्राण ही लेने हैं।
कैलनबैककी सहायता
श्री कैलनबैक जोहानिसबर्गके प्रसिद्ध वास्तुकार हैं। उन्होंने भारतीय समाजको धीरज बँधाने तथा जेलके निर्णयको बल देनेके लिए 'स्टार'में निम्नानुसार पत्र लिखा है। यह पत्र श्री गांधीके पत्रके साथ ही छपा है:
यद्यपि कुछ कारणोंसे में राजकीय कामोंमें भाग नहीं लेता फिर भी भारतीय समाज अपने उचित हकोंकी रक्षाके लिए कानूनके विरोधमें जेल जाने के प्रस्ताव द्वारा जो मोर्चा ले रहा है उसे मैं देखता आया हूँ।
अखबारोंकी टीका तथा 'स्टार' में लिखा हुआ श्री गांधीका पिछला पत्र मैंने पढ़ा है। अखबारमें जेलके निर्णयपर टीका की गई है। मैं तो निश्चित मानता हूँ कि एशियाई कानूनमें कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति सहन नहीं कर सकता। और इतनी तकलीफके बाद भी एशियाई लोगोंको यदि तीव्र पीड़ा न हो तो मानना होगा कि वे कानूनके सर्वथा योग्य है, यह बात सिद्ध हो गई। इसलिए जो लोग अपने भाइयोंको कानूनसे होनेवाले अपमानका दर्शन कराते हैं उन्हें उपद्रवी कह देना सरासर अनुचित है। जो भारतीय कानूनकी आपत्तिजनक बातोंको समझ सकते हैं उनका कर्तव्य है कि वे अपने भाइयोंको वे आपत्तियां दिखायें, उन्हें उनकी प्रतिष्ठाका भान करायें और उन्हें संगठित करके कानून रद करवानेकी तजवीज करें। मुझे विश्वास है भारतीय व्यापारियोंके व्यापारके डरके कारण हर गोरेकी विवेक-शक्ति खत्म नहीं हो गई। जो भारतीय कानूनका अपमान सहन करनेके बदले जेल जानेको तैयार है, पैसे-टकेका नुकसान