२४. कानूनका अत्याचार
जो पार उतारे औरोंको, उसकी भी नाव उतरनी है।
जो गर्क करे फिर उसको भी या डबकु-डबकु करनी है।
शमशीर तबर बन्दूक सनां और नश्तर तीर नहेरनी है।
याँ जैसी-जैसी करनी है, फिर वैसी-वैसी भरनी है।
कविने यों गाया है। 'जैसी करनी वैसी भरनी,' यह जगतप्रसिद्ध कहावत है। इस तरहका जो नियम है वह भारतीय समाजके लिए कुछ बदल नहीं जायेगा। जैसे कड़वी बेलमें मीठा फल नहीं लग सकता, पलासमें आम नहीं लग सकता, वैसे ही ट्रान्सवालके भारतीय करेंगे कुछ, और होगा कुछ―सो भी नहीं हो सकता। वे लोग मर्दानगी दिखायेंगे तो मर्दके समान रह सकेंगे। सम्मानके योग्य बात करेंगे तो सम्मान भोगेंगे। दिया हुआ वचन पालेंगे और कहा हुआ करके दिखायेंगे तो उनकी शोभा बढ़ेगी। किन्तु यदि स्वार्थ, डर या अन्य किसी कारणसे प्रतिज्ञा-भ्रष्ट होंगे तो समझ लीजिए कि ट्रान्सवालसे भारतीय समाजके अधिकार लद गये। इतना ही नहीं, ट्रान्सवालवालोंके साथ दूसरे भी पिस जायेंगे। ट्रान्सवालमें भारतीय समाजने ऐसा ही बड़ा काम अपने सिर लिया है।
इसके अलावा कवि कहता है कि जो दूसरोंको पार उतारेंगे वे स्वयं भी पार जायेंगे, यह भी दुनियाका―प्रकृतिका या खुदाका कानून है। यदि हम दूसरेका काम इस तरह करेंगे तो हमारा अपने-आप हो जायेगा। बाकी तो पक्षी और जानवर भी करते हैं। किन्तु मनुष्य और पशुमें मुख्य अन्तर यह है कि मनुष्य परोपकारी प्राणी है। जहाँ लोग प्रजाके सुखमें अपना सुख मानते हैं वहाँ सब सुखी रहते हैं। जहाँ सब अपना-अपना देखते हैं, वहाँ सब बर्बाद हो जाते हैं। क्योंकि "जो गर्क करे फिर उसको भी या डबक-डबक करनी है।" यह विचार गम्भीर है और सोचें तो सही भी है। जो माँ दुःख उठाकर बच्चेकी परवरिश करती है, वह अन्तमें सुखी होती है। कुटुम्बमें जहाँ सब आपसमें एक-दूसरेका दुःख बँटाते हैं और अपने दुःखकी परवाह नहीं करते, वहाँ कुटुम्ब-व्यवस्था निभती चलती है; समाजमें लोग स्वयं दुःख उठाकर समाजकी रक्षा करते हैं और उसके द्वारा अपनी रक्षा करते हैं; उसी प्रकार जहाँ लोग देशके लिए दुःख उठाते हैं, मरते हैं, वहाँ वे जिन्दा रहते हैं और देशका नाम चमकाते हैं। इस तरहके गूढ़ नियमको तोड़कर कौन भारतीय सुख भोगना चाहता है? ये उदाहरण स्पष्ट रूपसे सिद्ध कर देते हैं कि यदि टान्सवालके भारतीय कौमके लिए-अपनी प्रतिष्ठाके लिए―सारे दुःख सहनकर, आपत्तियाँ उठाकर, हाथमें लिया हुआ काम पूरा करेंगे तो उनकी विजय होगी। वे अपने बन्धन काटेंगे और इतिहास में अपना नाम अमर करेंगे।
इंडियन ओपिनियन, १५-६-१९०७