शेख सादीका 'गुलिस्तां'[१] भी वहींसे अंग्रेजीमें प्रकाशित हुआ है। उसका मूल्य १ शिलिंग है। 'कुरान शरीफका सार' नामकी पुस्तक भी है। उसकी कीमत १ शिलिंग है। 'बुद्ध शिक्षा का मूल्य २ शिलिंग और 'जरथुस्त्रके उपदेश' का भी २ शिलिंग है। अन्य पुस्तकें भी प्रकाशित होनेवाली हैं। इनमें से यदि कोई पुस्तक हमारे पाठकोंको चाहिए तो उसके उपर्युक्त मूल्यमें प्रति पुस्तक ६ पेनीके हिसाबसे जोड़कर हमें रकम भेज दी जाये। हम पुस्तक खरीदकर भेज देंगे। छ: पेनी आवश्यक डाकखर्चके लिए हैं।
इंडियन ओपिनियन, १५-६-१९०७
२८. जोहानिसबर्गको चिट्ठी
नया कानून
जनरल बोथाने 'खोदा पहाड़ मारा चुहा' के अनुसार काम किया है। उन्होंने संघको लिखा है कि कानूनको लागू करनेकी सारी तैयारी हो चुकी है, अतः शिष्टमण्डलके मिलनेको आवश्यकता नहीं। इसलिए सभी 'गज़ट' देखने में लग गये। उसमें कानूनके लागू होनेकी तारीख वगैरह छपनेकी राह देखी। लेकिन 'गजट' में वैसी कोई बात नहीं मिली। 'गजट' में सिर्फ इतनी ही खबर है कि काननको सम्राटने स्वीकार कर लिया है। यह कोई खबर नहीं है। इसके अलावा उसमें दूसरी खबर यह है कि कानूनको लागू करनेकी तारीख बादमें निश्चित की जायेगी। इसका क्या अर्थ? मैं तो यह अर्थ करता हूँ, सरकार इस चक्करमें पड़ी है कि भारतीय समाजने जेल जानेका जो निर्णय किया है उसका क्या किया जाये और कानूनको किस प्रकार अमलमें लिया जाये। अर्थ यह हो या दूसरा, इतना तो निश्चित है कि सरकार जेलके प्रस्तावके सम्बन्धमें सोचमें पड़ गई है।
कुछ प्रश्न
इस तरह, स्थिति डांवाडोल है। इस बीच भारतीय समाजके लिए अनिवार्य है कि वह अपने हथियार सजाकर तैयार रखे। अब भी प्रश्न पूछे जाते हैं, यह अच्छा लक्षण है। एक प्रश्न तो यह पूछा गया है:
हमारे विलायतके हितचिन्तक जेलका प्रस्ताव नापसन्द करें तो?
यह प्रश्न ठीक किया गया है। इसका उत्तर भी सीधा है। समितिके सदस्य अथवा विलायतके अन्य सज्जनोंको वहींतक अपना हितचिन्तक समझा जाये जहांतक वे हमें अपनी प्रतिष्ठा और अधिकारको रक्षा करने में मदद करें। उनके विचारोंका हम आदर करें किन्तु जब उनके विचार हमारे अधिकारके विरुद्ध जाते हों तब हम उन विचारोंसे बँधे हुए नहीं हैं। मान लो कि हमें कोई ईसाई बननेके लिए विवश करता है तो उसका हम विरोध करेंगे। मान लो कि हमारे आजतक हितचिन्तक माने जानेवाले लोग हमें सलाह देते हैं
[२] देखिए "वीर क्या करें?", पृष्ठ ३-५।