३७. जोहानिसबर्गकी चिट्ठी
[जून २६, १९०७]
नया कानून
ट्रान्सवाल सरकारने शोक संवाद सुना दिया है। उसने श्री ईसप मियाँके पत्रके उत्तरमें लिखा है कि जैसा पहले उत्तर दिया जा चुका है, भारतीयोंका सुझाव मंजूर नहीं किया जा सकता। यानी सरकार कानूनको अमलमें लाना चाहती है। अब तारीखकी ही राह देखना शेष है। इसे मैं शोक संवाद कहता हूँ, किन्तु इसे शुभ संवाद भी माना जा सकता है। हिम्मतवाले तो इसे शुभ संवाद ही मानेंगे।
नई नियुक्ति
सरकारी 'गज़ट' में समाचार है कि नये कानूनके अनुसार श्री चैमनेको पंजीयक नियुक्त किया गया है। मैं आशा करता हूँ कि भारतीय समाज ऐसा वक्त ला देगा कि श्री चैमने साहब जम्हाई लेते बैठे रहें। इस संवाददाताका नाम तो उस रजिस्टरमें कभी दर्ज नहीं होगा, किन्तु खुदासे मेरी निरन्तर यह प्रार्थना है कि ऐसी ही सारे भारतीयोंकी भावना हो।
बाजारमें छुआछूत
जोहानिसबर्ग बाजारमें यूरोपीय लोग भारतीयोंको छनसे परहेज करते मालूम होते हैं। इससे नगरपालिकाने प्रस्ताव किया है कि यूरोपीय और काले लोगोंके लिए अलग-अलग विभाग रखे जायें। चीनियोंसे बाहरी हिस्सेका किराया लेनेका निर्णय भी किया गया है। हमने अपने देशमें भंगी रखे हैं, इसलिए हम भी यहाँ भंगी बन गये हैं और अब अनुमतिपत्ररूपी चिट्ठी गलेमें बाँधकर बिलकुल बेहाल हो जायेंगे। मुझे याद है कि पोर्ट एलिजाबेथके भारतीयोंपर बाजारमें इसी तरहका जुल्म शुरू किया गया था। उस समय भारतीयोंने बाजारमें जाना बन्द कर दिया था। यदि भारतीय फेरीवाले जोहानिसबर्गमें उतनी ही हिम्मत दिखायें तो इस भंगी-दशासे मुक्ति मिल सकती है। तुच्छ कहलाकर पेट भरनेसे तो देश छोड़ना बेहतर माना जायेगा।
डच पंजीयनपत्रका प्रश्न
लॉली स्टेशनसे एक पत्र-लेखक पूछते हैं कि उनके पास डचोंके समयका पुराना पंजीयनपत्र है। डच गवाह भी है। फिर भी उन्हें अनुमतिपत्र नहीं मिलता। इसका क्या किया जाये? जान पड़ता है इन भाईने 'इंडियन ओपिनियन' नहीं पढ़ा। मैं कह चुका हूँ कि ऐसा भारतीय नये कानूनके लागू होनेके बाद जेलका रस चखना चाहता हो तो ट्रान्सवालमें रहे, नहीं तो ट्रान्सवाल छोड़ दे।
लेनर्डका मत
कुछ भारतीयोंको डर है कि जो भारतीय नया अनुमतिपत्र नहीं लेंगे उन्हें सरकार जबरदस्ती निर्वासित कर सकती है। ऐसी ही शंका चीनियोंको भी हुई थी। इसलिए उन्होंने श्री लेनर्डकी राय ली थी। श्री लेनर्डने जो राय दी वह निम्नानुसार है: