यदि सरकार मुकदमा चलानेपर तुली रही तो ये लोग जेल जायेंगे। इसके कारण निश्चय ही उन्हें बहुत हानि होगी; क्योंकि उनमें से बहुतोंके बड़े-बड़े स्वार्थ हैं। परन्तु अपना आत्मसम्मान सुरक्षित रखने के लिए वे सर्वस्वकी बलि करनेको तैयार है।
हम अनुभव करते हैं कि देशके विधानमें, उस दशामें भी जब हम स्वयं उससे प्रभावित हों, हमारी कोई आवाज न होने के कारण उसके प्रति विरोध प्रकट करनेका एक ही मार्ग रह जाता है कि हम उसको माननेसे सादर इनकार कर दें। यदि कानूनको न माननेके परिणामस्वरूप सरकार अनिवार्य पंजीयन लागू करनेकी जिद करती है तो हो सकता है कि ट्रान्सवालमें भारतीयोंके निवासका प्रश्न उपनिवेशियोंके संतोषके मुताबिक सुलझ जाये; अर्थात् भारतीयोंको अन्त में इस देशसे चले ही जाना पड़े। यदि ऐसा हो तो उपनिवेशियोंके इस सन्तोषसे मुझे तबतक ईर्ष्या नहीं होगी जबतक वे उसी साम्राज्यके सदस्य होनेका दावा करते हैं जिससे सम्बन्धित होनेका मुझे भी सम्मान प्राप्त है। ऐसे दावोंसे उनके व्यवहारका बिलकुल ही मेल न बैठेगा। खासकर तब, जब इस बातको ध्यानमें रखा जाये कि भारतीयोंने सरकारसे किये गये किसी भी वादेके अनुसार आचरण करने में अपने आपको समर्थ सिद्ध कर दिया
भारतीयोंने स्वेच्छया पंजीयन करानेका वचन दिया है। वह उतना ही कारगर होगा जितना कि अनिवार्य पंजीयन। इस बारे में बहुत कुछ कहा गया है कि कानून नरम है और उसमें एशियाइयोंकी भावनाओंपर चोट करनेवाली कोई बात नहीं है। परन्तु मैं इतना ही कह सकता हूँ कि उपनिवेशोंमें स्वीकार किये गये समस्त प्रतिबन्धक कानूनोंको मैंने पढ़ा है और मैं जानता हूँ कि जैसा अपमानजनक और गिरानेवाला यह पंजीयन अधिनियम है वैसा कोई और नहीं है।
पुराने एम्पायर नाटकघरमें हुई विराट सभाका हवाला देते हुए श्री गांधीने अपना भाषण समाप्त किया। उन्होंने कहा कि समाचारपत्रोंके अनुमानके अनुसार सभामें २,००० भारतीय उपस्थित थे और उन्होंने सर्व सम्मतिसे यह गम्भीर घोषणा की थी कि वे बलात् पंजीयनको कभी स्वीकार नहीं करेंगे। उन्होंने कहा कि वे महसूस करते हैं, उस घोषणाका सच्चाईके साथ पालन किया जायेगा।
रैड डेली मेल, २९-६-१९०७
[१] यह विवरण निम्नलिखित सम्पादकीय टिप्पणीके साथ समाप्त किया गया था: “पिछली मर्दमशुमारीके अनुसार टान्सवालमें ९,९८६ भारतीय हैं, जिनमें ८,६४७ पुरुष हैं। प्रिटोरियाके नगरपालिका क्षेत्रमें १,६८१ भारतीय हैं जिनमें १,४४५ पुरुष हैं। ३१ चीनी भी हैं जो सब पुरुष है।"
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