जबतक भारतीय समाज कानूनको मंजूर नहीं करता तबतक वह पास माना ही नहीं जा सकता। यदि कोई बड़े या छोटे भारतीय कानूनकी गुलामीका पट्टा ले लेते हैं तो उनका किसीको अनुकरण नहीं करना है। जो मुक्त रहेंगे सो जीतेंगे।
इंडियन ओपिनियन, ६-७-१९०७
४७. पत्र:‘रैंड डेली मेल’को’
जुलाई १, १९०७
सम्पादक
आपने एशियाई पंजीयन अधिनियमके तथाकथित "अनाक्रामक प्रतिरोध" के सम्बन्धमें जो सौम्य और सद्भावपूर्ण टिप्पणी की है, उसकी आलोचना मुझे करनी पड़ रही है जो, सम्भव है, कृतघ्नता प्रतीत हो। भारतीय समाजको जो प्रतिरोध करना है उसको मैं "तथाथित" कहता है, क्योंकि वह मेरी सम्मतिमें वस्तुतः प्रतिरोध नहीं, बल्कि सामहिक कष्टसहनकी नीति है। अधिनियमके विनियमोंको पढ़ लेनेपर भी आप इसको भावुकताकी बात समझते है।
यदि मेरे आठ वर्षके लड़केको एक ऐसे अधिकारीके सामने, जिसे उसने अपने जीवन में शायद पहले कभी नहीं देखा, बिना किसी अपराधके, पहले अलग-अलग और फिर एक साथ, अँगुलियों और अंगूठोंके निशान देनेकी अत्याचारपूर्ण प्रक्रियासे गुजरनेको बाध्य किया जाये और मैं पिताके नाते उस दृश्यको देखनेके बजाय गोलीसे मार दिया जाना अच्छा समझू तो क्या यह भावुकता है? यदि मैं इस देश में अपने अस्थिर निवासके मूल्यके रूपमें अपनी माँका नाम और ऐसे ही दूसरे विवरण देना नामंजूर करूँ तो क्या यह भावुकता है?
लॉर्ड एलगिनको भले ही अपनी गद्दीदार कुसीपर बैठकर कलमके बजाय अँगूठेसे निशान बनाने में कोई अन्तर न दिखाई दे; किन्तु मैं जानता हूँ कि वे उस राष्ट्र के हैं जो वैयक्तिक स्वतन्त्रतापर किये गये आक्रमणका विरोध करनेके लिए एक सिरेसे दूसरे सिरे तक विद्रोह कर देगा, और वे स्वयं पहले व्यक्ति होंगे, जो अपने हस्ताक्षरोंके बलात अक्स किये जानेका भी चिल्लाकर विरोध करेंगे। जो चीज चभती है वह है जबर्दस्ती, न कि अंगुलियोंकी निशानी।
सरकारके मनमें हमें गिरानेकी कोई इच्छा नहीं है, यह बात तभी सत्य हो सकती है जब यह मान लिया जाये कि इस देशमें, जहाँ एशियाइयोंके अतिरिक्त अन्य सबको स्वतन्त्रता प्राप्त है, मेरे देशवासी पहले ही इतने गिरा दिये गये हैं कि वे उससे अधिक
[१] यह ६-७-१९०७ के इंडियन ओपिनियन में भी उद्धृत किया गया था।
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