गिरावटका अनुभव कर ही नहीं सकते। किन्तु यह समय तर्क करनेका नहीं है। वीर शासकोंपर, जो कथनीका नहीं, करनीका मूल्य समझते हैं, वीरता और ठोस कार्यकी ही प्रतिक्रिया हो सकती है।
जैसा आप कहते हैं, यदि प्रिटोरिया कमजोर है, और सरकारने "साँपकी बुद्धिसे", जिसका आप उसे श्रेय देते हैं, अपने प्रति किसी भी विरोधको तोड़नेके लिए सबसे कमजोर जगहको चुना है; और यदि इस अधिनियमके विरुद्ध आवाज उठानेवाला अकेला मैं और सम्भवत: मेरे थोड़े-से साथी कार्यकर्ता ही रह जायें, तब भी हम यह कह सकेंगे कि इस गिरावटको स्वीकार करने में हमारा कोई हिस्सा नहीं है। किन्तु प्रिटोरियाके सम्बन्धमें आपकी जो सम्मति है, उसे मैं नहीं मानता। कल स्थानीय मन्त्री श्री हाजी हबीबके मकानपर ब्रिटिश भारतीयोंकी जो आम सभा हुई थी उसमें एक वक्ता मैं भी था। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि यदि मेरे देशवासियों द्वारा व्यक्त भावनाएँ उनके हृदयोंसे उद्भूत हुई हैं। और मेरा विश्वास है, बात ऐसी ही है―तो प्रिटोरियाका प्रत्येक भारतीय अनिवार्यतः पुनः पंजीयन करानेसे इनकार करेगा, फिर परिणाम चाहे जो हो।
दक्षिण आफ्रिका ब्रिटिश भारतीय समिति जब यह कहती है कि “स्थानीय सरकार इस सन्देहकी पुष्टि करती है कि वह उग्रतम कानूनोंको लादने और इस प्रकार ब्रिटिश भारतीयोंको गिराने और अपमानित करनेके लिए व्यग्र है," तब आप उसपर मुंह-फट भाषामें, असत्य नहीं तो आत्यन्तिक अत्युक्तिका आरोप लगाते हैं। आत्यन्तिक अत्युक्ति या असत्य, चाहे जिस बातका भी दोषी होनेकी जोखिम हो, मैं उसी कथनको दुहराता हूँ; और उसके समर्थन में आपके सम्मुख जानबूझकर किये गये अपमानका वह ताजा उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ जो प्रिटोरियाकी सभामें प्रकाशमें आया है। वहाँ एक धर्म-प्रचारकने मध्य दक्षिण आफ्रिका रेलवेका एक कागज' दिखाया, जिसमें कहा गया था कि रेलकी यात्राके सम्बन्धर्म धर्म-प्रचारकोंको जो रियायत है वह ईसाई और यहूदी धर्म-प्रचारकोंके लिए ही है। धर्म-प्रचारककी इस सूचनासे सभामें दुःखद सनसनी फैल गई। क्या यह नया भेदभाव भी एशियाइयोंकी भरमारके विरुद्ध आवश्यक चौकसी है?
आपका, आदि,
मो० क० गांधी
रैंड डेली मेल, २-७-१९०७
[१]देखिए “प्रिटोरियाकी आम सभा", पृष्ठ ८०-८२।
[२] देखिए “आगमें धी", पृष्ठ ७१-७२।