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४९. पत्र: 'स्टार' को

जोहानिसबर्ग
जुलाई ४, १९०७

सेवामें

सम्पादक
'स्टार'

[जोहानिसबर्ग]
महोदय,

आपने अपने पाठकोंको जो जानकारी दी है उससे भारतीय समाजको बहुत आश्चर्य हुआ है। आपने कहा है कि भारतीय लगभग किसी निर्योग्यतासे पीड़ित नहीं हैं और अंगुलियोंके निशान देनेके प्रश्नपर तो विचार ही नहीं करना चाहिए, क्योंकि भारतीय सिपाही अपनी पेंशन लेनेसे पहले स्वेच्छासे अपने अंगूठोंके निशान देते है।

मैं सोचता है कि क्या आप अब प्रवासी विधेयकका, जो कल प्रकाशित किया गया है, समर्थन करेंगे और यह कहेंगे कि, जहाँतक भारतीयोंका सम्बन्ध है, वह कानून निर्दोष है। एशियाइयोंको अत्यन्त चालाक बताया गया है। किन्तु जो चालाकी इस विधेयकके निर्माताओंने दिखाई है वह, यदि अमार्जित भाषामें कहें तो, सबसे बाजी मार ले जाती है। यदि खण्ड २ के उपखण्ड ४ को मैने ठीक तरह समझा है तो मेरा विश्वास है, उसके द्वारा एशियाई पंजीयन अधिनियमके विरोध करनेवाले अनाक्रामक प्रतिरोधियोंको एक उत्तर दिया गया है और ट्रान्सवालके भारतीयोंमें आत्मगौरवकी अवशिष्ट भावनाको भी कुचलनेके लिए राजकीय लूटकी प्रणाली स्थापित की गई है; क्योंकि उक्त खण्डके अन्तर्गत ऐसा प्रत्येक एशियाई, जो नया पंजीयन प्रमाणपत्र नहीं लेगा, एक वर्जित प्रवासी हो जायेगा और वजित प्रवासीको जेलकी सजा दी जा सकती है, उसके बाद उसे उपनिवेशसे जबरदस्ती निकाला जा सकता है तथा उसके निष्कासनका व्यय उसकी सम्पत्तिसे, जो उपनिवेशमें होगी, वसूल कर लिया जायेगा। इस प्रकार कानून बहुत ही पेचीदा तरीकेसे वर्जित प्रवासीका निर्माण करता है। जिस व्यक्तिने ट्रान्सवालको अपना देश बना लिया है, किन्तु जो अतिरिक्त दण्ड भोगकर अपने ऊपर लाग किसी काननका उचित या अनचित विरोध करता है. वह व्यक्ति अपने अंगीकृत देशमें कानूनके संरक्षणसे वंचित कर दिया जायेगा। इसके अतिरिक्त यह खण्ड केवल 'एशियाई और दुराचार अधिनियमों' का ही अमल करा सकता है, अर्थात् वेश्याएँ, गुण्डे और वे एशियाई जो अपना सम्मान खोनेसे इनकार करते हैं, एक ही श्रेणीमें रखे जायेंगे।

इसके अतिरिक्त, इससे जो अपमान उद्दिष्ट है उसकी निरंकुशता दिखानेके लिए, मैं जनताका ध्यान इस बातकी ओर दिलाना चाहता हूँ कि यदि कोई भारतीय―उदाहरणार्थ, सर मंचरजीको ही ले लीजिए―अत्यन्त कड़ी परीक्षामें उत्तीर्ण हो जाये, और ट्रान्सवालमें