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जोहानिसबर्ग की चिट्ठी

दस अँगुलियोंके बारेमें क्या?

दस अँगुलियोंकी दिये निशानी, उतर जायेगा मूँछका पानी"[१] ऐसे गीत गाये जानेके बाद क्या श्री गांधी दस अँगुलियोंकी छाप देनेकी सलाह देंगे? इसका उत्तर श्री गांधीने "हाँ, देंगे" दिया है और अब भी दे रहे हैं। हमारी लड़ाई अँगुलियोंके निशानके खिलाफ नहीं है, कानूनके खिलाफ है। कानूनके आगे न झुकें, इतना पर्याप्त है। कानून मानकर हस्ताक्षर देनेमें तौहीन है। परन्तु कानूनसे बाहर अँगुलियोंकी छाप या कुछ अधिक देनेमें भी तौहीन नहीं है। उक्त गीत उस कानूनके लिए गाया गया है; दस अँगुलियोंके निशान देना आदि तो उसके बाहरी लक्षण थे। वास्तविक कैदी, कैदीकी पोशाक पहने रहता है इसलिए हम उसे कैदीके रूपमें पहचानते हैं। उसका गान करते हुए हम उसके कुर्तेका वर्णन भी कर सकते हैं। परन्तु वही पोशाक कोई सज्जन शौकसे पहने अथवा कोई अंग्रेज नाचमें फैन्सी ड्रेसके रूपमें पहने तो वह इससे कैदी नहीं हो जाता।

श्री गांधी और अन्य भारतीयोंने जेलमें अठारह अँगुलियोंकी छाप दी, यह उनके लिए सम्मानकी बात है। ऐसा करनेमें उन्होंने कुछ गलत नहीं किया। न देते तो गलत कहलाता। अँगुलियोंके निशानवाला वह कागज अगर मिल जाय तो वह मढ़वाकर रखने लायक है। क्योंकि जेल जाना भारतीयोंकी मुक्तिका दरवाजा खोलनेके समान था। इसलिए उस जेलमें जो कुछ हुआ वह यदि उचित था तो सराहनीय ही माना जायेगा।

रेशमकी डोरी फाँसी देनेके काममें आ सकती है। ऐसी अवस्थामें हम उससे भड़केंगे। उसी रेशमकी डोरीसे माला गूँथकर पहनी जाये तो उसे शोभायमान हार मानेंगे।

यह निश्चित नहीं है कि दस अँगुलियों की छाप देनी ही पड़ेगी। अभी इस सम्बन्धमें बातचीत चल रही है। किन्तु कानून रद हो जाये और दस अँगुलियोंकी छाप देनी पड़े तो उसके विरोधमें संघर्ष छेड़ना नादानी कहलायेगी---सूरजका प्रकाश छोड़कर जुगनूकी चमकके पीछे दौड़ने जैसा समझा जायेगा।

इसके सिवा, प्रवासी कानूनके अनुसार अब गोरोंके लिए भी दस अँगुलियोंकी छाप देनेकी प्रणाली लागू हुई है। इसलिए इस बारेमें बहुत जोर देकर नहीं कहा जा सकता। इतना खुलासा करनेकी आवश्यकता भी नहीं होनी चाहिए। फिर भी ऐसा करनेकी जरूरत पड़ी है, क्योंकि इस सम्बन्धमें कितने ही लोग चर्चा कर रहे हैं। इसी कारण और स्पष्ट किया है।

शिक्षित और जाने-माने लोग

स्वेच्छया पंजीयनमें यह इजाफा किया गया है कि अधिकारियोंको शिक्षित और जाने-माने व्यापारियों आदिके हस्ताक्षर लेनेकी इजाजत दे दी गई है। श्री गांधीने इसका आग्रह नहीं किया था, किन्तु जो कागज उनके सामने रखा गया उसीमें यह बात थी। इसे निकाल देना उचित मालूम नहीं पड़ा, इसलिए रहने दिया गया है। शिक्षितोंके हस्ताक्षरोंसे काम चला लिया जाये यह ठीक जान पड़ता है। क्योंकि शिक्षित कौन है, यह [ तय करना ] अधिकारीकी इच्छापर निर्भर नहीं रहता। किन्तु शिक्षित न होनेपर भी जानेमाने व्यक्तिसे उसके हस्ताक्षर लेना बहुत दोषपूर्ण है। जाने-माने कौन, इसका निर्णय अधिकारी करें, इसमें गुलामीकी बू आती है। इसलिए मेरी सिफारिश इस रास्तेका उपयोग न करने की है। हकसे जो बात बन

  1. दस आंगळियो तणी निशानी दीये मूंछनु जाशे पाणी।