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जोहानिसबर्ग की चिट्ठी

इस प्रकार जो छूट मिली है वह अत्यन्त सन्तोषप्रद कही जा सकती है। इससे कुछ भी अधिक माँगना भारतीय समाजका ओछापन कहलाता। मनुष्योंका स्वाभिमान सदा उनकी मर्यादामें सीमित रहता है। छिछले होकर अधिककी याचना करना और वह मिल जाये तो उसे ले भी लेना, योग्य नहीं है। इसलिए प्रत्येक भारतीयको मेरी सलाह है कि वह शिक्षा अथवा धन-सम्पत्ति आदिके कारण मिलनेवाली छूटका लाभ न ले। स्वेच्छया पंजीयनके द्वारा हम मर्यादामें रहकर जो-कुछ करेंगे उसमें अप्रतिष्ठा नहीं है, बल्कि भलमनसाहत है। हम शिनाख्तमें सरकारकी मदद करेंगे---उसके लिए जितनी आवश्यक हो उतनी, बल्कि उससे अधिक ही। इस प्रकार हम ऊँचे चढ़ेंगे, यह विश्वासपूर्वक समझ लेना चाहिए। इन कारणोंसे श्री ईसप मियाँ, श्री गांधी और अन्य सत्याग्रहियोंने अपनी दस अँगुलियोंके निशान देनेका निश्चय किया है। उक्त व्यक्तियोंको जो अधिकार हैं उन्हें वे इस प्रकार खोते नहीं हैं, बल्कि सुरक्षित रख सकते हैं। कुछ अधिकार ऐसे होते हैं कि उनका उपयोग न किया जाये तो वे आभूषणकी भाँति शोभा देते हैं, परन्तु उनका उपयोग करनेपर परिणाम हानिकर होता है। जो अलंकार साफ-साफ दिखाई देते हैं, अपने संघर्षको समझानेकी दृष्टिसे मैं उनका उल्लेख कर रहा हूँ। कानून और उसके रहस्य अर्थात् भेदको हम आत्मा या रूह कह सकते हैं। धाराओं अर्थात् अँगुलियों आदिको हम शरीर अथवा बदनकी उपमा दे सकते हैं। कानूनरूपी आत्माके, जो दुरात्मा यानी खराब रूह है, विनाशके प्रयत्नमें हम पिछले सोलह महीनोंसे जुटे हुए हैं। फलस्वरूप उस खराब रूह यानी दुरात्माका नाश हुआ है। अब जो शरीर बच रहा है उससे उसका सम्बन्ध नहीं है। इसी शरीरके अन्दर खराब रूहके बदले अच्छी रूह यानी आत्मा बस जाये तो हम उस शरीरका विरोध नहीं करेंगे। स्वेच्छया पंजीयन रूपी अच्छी आत्मा यानी रूहके उसी शरीरमें अथवा उसी प्रकारके शरीरमें प्रविष्ट होने से, हमारा उक्त शरीरसे कोई झगड़ा नहीं रहता। इतना ही नहीं, किन्तु हम उसका आदर करेंगे। लेखक स्वयं इस उपमाको गम्भीरता से मानता है। इस भूमिकापर बहुतसे विचार उत्पन्न होते हैं और उनका विस्तार करने से यह प्रत्यक्ष सिद्ध हो सकता है कि हमारी लड़ाई सचमुच खुदाई यानी धार्मिक थी; और समझदार मनुष्य तत्काल देख सकता है कि हमें इसमें सम्पूर्ण विजय अप्रत्याशित शीघ्रता से प्राप्त हुई है।

पंजीयन कौन करा सकेगा?

(१) वे, जिनके पास सच्चे अनुमतिपत्र हैं अर्थात् अपने अनुमतिपत्रोंपर जिनके अँगूठोंके निशान आदि सही-सही होंगे।

(२) वे, जो १९०२ के मई मासकी ३१ तारीखको ट्रान्सवालमें थे- --चाहे उनके पास अनुमतिपत्र हों या न हों।

(३) जिनके पास डचोंके समयके अपने निजके तीन-पौंडी पंजीयनपत्र हैं और जो इस समय ट्रान्सवालमें हैं।

(४) जो ट्रान्सवालमें लड़ाईके पश्चात् १६ वर्षसे कम आयुमें ठीक ढंगसे दाखिल हुए इस प्रकारके प्रमाणवाले व्यक्तिको स्वेच्छया पंजीयन कराने में दिक्कत नहीं होगी।

चेतावनी

यह लिखते समय 'स्टार' में सरकारके विरुद्ध दो बहुत ही कड़े पत्र मेरे देखनेमें आये हैं। एकके लेखकका नाम फिलिप हेमंड है। उसने लिखा है कि सरकारने भारतीयोंको सब-