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३९. पत्र: मित्रोंको[१]

मेरे प्रिय मित्रो,

जोहानिसबर्ग,
फरवरी १०, १९०८

मैं अच्छी तरह हूँ। स्नेही भाई श्री डोक तथा स्नेहमयी बहन श्रीमती डोक मेरी सार-संभाल कर रहे हैं। मैं आशा करता हूँ कि कुछ ही दिनोंमें मैं अपना काम हाथमें ले लूँगा।

जिन लोगोंने यह कृत्य किया है वे जानते न थे कि वे क्या कर रहे हैं। उन्होंने सोचा कि मैं कोई गलत काम कर रहा हूँ। उन्होंने अपना गुबार निकालनेके लिए वह रास्ता अपनाया जिसके अलावा वे और कुछ जानते ही न थे। इसलिए मेरा निवेदन है कि उन लोगोंके खिलाफ कोई कार्रवाई न की जाये।

यह देखकर कि प्रहार मुसलमान या मुसलमानों द्वारा किया गया था, हिन्दू लोग कदाचित् क्षुब्ध होंगे। यदि ऐसा होगा तो वे संसारके तथा परमपिताके सामने गुनहगार होंगे। मैं तो यही कह सकता हूँ कि जो रक्त बहा है, उससे दोनों जातियोंके बीच स्थायी मैत्री स्थापित हो, और मैं हृदयसे यही प्रार्थना करता हूँ। ईश्वर करे वह फलवती हो।

वारदात होती चाहे न होती, मेरी सलाह ज्योंकी-त्यों रहेगी। एशियाई लोगोंके इस बहुत बड़े भागको अँगुलियोंकी छाप देनी चाहिए। जिन्हें कोई ऐसी आपत्ति हो, जिसका सम्बन्ध अन्तरात्मासे है, उन्हें सरकारसे छूट मिल जायेगी। इससे अधिककी याचना करना लड़कपन प्रकट करनेके समान होगा।

सत्याग्रहकी भावनाको अच्छी तरहसे समझ लेनेपर ईश्वरके सिवा और किसीसे डरनेकी बात रह ही नहीं जाती। इसलिए विवेकशील और गम्भीर हृदयवाले भारतीयोंके एक बहुत बड़े बहुमतको चाहिए कि वह अपने कर्तव्य-पालनके मार्गमें किसी प्रकारके कायरतापूर्ण भयके द्वारा बाधा उत्पन्न न होने दे। स्वेच्छासे कराये गये पंजीयनके खिलाफ कानूनको मंसूख कर देनेका वादा किया ही जा चुका है; इसलिए प्रत्येक नेक भारतीयका यह पवित्र कर्त्तव्य हो जाता है कि वह भरसक सरकारकी तथा उपनिवेशकी सहायता करे।

आपका विश्वस्त मित्र तथा सेवक,
मो० क० गांधी

[ अंग्रेजी से ]
इंडियन ओपिनियन, १५-२-१९०८
  1. गांधीजी के स्वेच्छया पंजीयनके प्रस्तावसे कुछ भारतीय नाराज हो गये थे। १० फरवरी १९०८ को जब वे पंजीयन कराने पंजीयन कार्यालयकी ओर जा रहे थे, मीर आलम और दूसरे कुछ पठानोंने उनपर हमला किया था। देखिए दक्षिण आफ्रिका सत्याग्रहका इतिहास, अध्याय २२।