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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

करानेकी थी। पाँच हजार[१] व्यक्तियोंके हस्ताक्षरसे जो अर्जी भेजी गई थी उसमें भी यही शर्त थी। स्वेच्छया पंजीयन कानूनवाले पंजीयनके ही समान होता तो भी हमारे लिए उसमें आगा-पीछा करनेकी कोई बात नहीं थी। अब सरकारने स्वेच्छया पंजीयन स्वीकार कर लिया है; यदि ऐसा किया जाये तो कानूनको रद कर देनेके लिए लिखित वचन मौजूद है। इसीसे हम अपनी सम्पूर्ण जीत मानते हैं। परन्तु समझौतेके अनुसार तो स्वेच्छया पंजीयनमें सुशिक्षित, प्रतिष्ठित आदि लोगोंकी परिस्थितिका ध्यान भी रखा गया है। फिर, स्वेच्छया पंजीयन तो भविष्यमें जो भारतीय ट्रान्सवालमें आयेंगे उनपर भी लागू होता है। और जिनको सरकारी नौकरीसे अलग किया गया है उन्हें भी बहुत करके दुबारा ले लिया जायेगा।

स्वेच्छया बनाम अनिवार्य पंजीयन

पाठक: मैं तो अभीतक स्वेच्छया और अनिवार्यके बीच उलझा हुआ हूँ। और मैं जानता हूँ कि दूसरे लोग भी इसे सही-सही नहीं समझते। इसलिए आप समझायें तो अच्छा हो।

सम्पादक: इसके न समझे जानेपर मुझे कोई आश्चर्य नहीं है। इसे बहुत-से गोरे भी नहीं समझ पाते। कानूनके अनुसार पंजीयन करानेसे हम लोगोंपर जुल्म होता था। और उसमें तौहीन थी। इसका नाम है अनिवार्य पंजीयन। उसी प्रकारका पंजीयन यदि हम स्वेच्छया करायें तो हमारी प्रतिष्ठा बनी रहती है। और इससे हम कुलीन कहलायेंगे। उदाहरण के लिए, यदि मैं अपने मित्रकी सेवा करूँ, उसके पाँव धोऊँ, उसका मैला उठा दूँ, तो इससे हमारी मित्रता बढ़ेगी, मेरी आत्मा प्रसन्न होगी, और लोग मुझे बहुत भला आदमी समझेंगे। दूसरा मनुष्य वही काम जोर-जबर्दस्तीसे, उसे पसन्द न होनेपर भी, मार खानेके डरसे या सिर्फ पैसेके लालचसे और बुरा काम समझकर करता है। ऐसे व्यक्तिको हम नीच और गुलाम मानेंगे। उसे स्वार्थी कहेंगे। वह स्वयं भी ऐसा काम करनेमें लजायेगा। कोई उसे देख ले तो वह छिप जानेकी कोशिश करेगा। ऐसा मनुष्य पापी कहलायेगा और उसकी आत्मा कभी प्रसन्न नहीं होगी। जैसा यह अन्तर है वैसा ही अन्तर स्वेच्छया और अनिवार्य पंजीयनमें है।

पाठक: अब बात कुछ समझमें आई। परन्तु मुझे तो लगता है कि आपने जो उदाहरण दिया वह लागू नहीं होता; क्योंकि यदि हम स्वेच्छया पंजीयन न करायें तो ऐसा जान पड़ता कि कानून हमपर लागू किया जायेगा। फिर हम लालचमें पड़कर स्वेच्छया पंजीयन कराते हैं; इसलिए आप जिसे स्वेच्छया कह रहे हैं उसमें, मैं तो जबर्दस्ती और स्वार्थ, दोनों दोष देख रहा हूँ।

सम्पादक: आप भूल कर रहे हैं। स्वेच्छया पंजीयन न करायें तो कानून हमपर लादा जायेगा, यह ठीक है; किन्तु इसमें जबर्दस्ती नहीं है। यदि सरकार यह कहे कि "आप लोग पंजीयन करायें अन्यथा हम कानूनको अमलमें लायेंगे तो बेशक वह जबर्दस्ती कहलायेगी। परन्तु हम तो यह कह रहे हैं कि हम लोग स्वेच्छया पंजीयन करानेके लिए तैयार हैं। अगर हम न करायें तो आप कानून लागू करें। यह माँग हम जबर्दस्तीके डरसे नहीं, बल्कि अपनी ईमानदारी जाहिर करनेके लिए, और इसलिए कर रहे हैं कि स्वेच्छया पंजीयन करानेमें

 
  1. वास्तवमें यह संख्या ४,५२२ थी। देखिए: खण्ड ७, पृष्ठ ३२०।