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समझौतेके बारेमें प्रश्नोत्तरी

हम तौहीन नहीं मानते। फिर, स्वेच्छया पंजीयनकी माँगका विशेष उद्देश्य उस भ्रमको दूर करना है जो हमारे बारेमें हमारे इज्जतदार होनेपर भी सरकारके मनमें है। इसलिए इसमें जोर-जबर्दस्ती की कोई बात नहीं है। यदि जबर्दस्ती से डरकर हमने यह किया होता तो सोलह महीनों[१] तक सरकारसे लोहा न लेते। तथ्य तो यह है कि हमारे ---हमारे सत्यके---सामर्थ्य से डरकर सरकारसे लोहा न लेते। तथ्य तो यह है कि हमारे डरकर सरकारने स्वेच्छया पंजीयनको मान्य किया है।

फिर, आप इसमें यह दोष बताते हैं कि ऐसा लालचके मारे किया गया है। यह भी बिना विचारे कहा जा रहा है। गहराई से देखें तो प्रत्येक कार्य में लालच रहता ही है। मैंने जो उदाहरण दिया उसमें भी---अपने मित्रकी मैं जो सेवा करता हूँ उसमें---एक प्रकारका लालच मौजूद है, अपनी आत्माको प्रसन्न करनेका। ऐसा करना खुदा का फर्मान है, यह सोचकर उसकी आज्ञा पालन करने के लिए यदि मैं वह सब करूँ तो यह सबसे श्रेष्ठ प्रकारका लालच है; फिर भी लालच तो है ही। अपने मित्रका अधिक प्यार पानेके लिए करूँ, तो भी वह लालच है, और घटिया किस्मका लालच है। स्वेच्छया पंजीयन में उस प्रकार का लालच मौजूद है। यह दोष नहीं है, गुण है। साधारण बातचीत में ऐसी आशा को हम लालच नहीं कहते। किन्तु अपने ही स्वार्थ के लिए जो होता है उस मनोवृत्ति को लालच कहते हैं। जो आदमी खुदाका बन्दा बनकर निरन्तर मनुष्य-जाति अथवा जीवमात्र की सेवा करता है और उसी में मग्न रहता है उसे अवश्य खुदाकी चाकरी में रहने---निर्वाण पानेका--लालच है; ऐसे मनुष्य की हम पूजा करते हैं। और संसार में यदि इस प्रकार के बहुत-से मनुष्य हो जायें तो आज जो पाप, क्लेश, दुःख, भुखमरी, रोग आदि दिखाई पड़ते हैं उनकी जगह पुण्य, समृद्धि, शान्ति, सुख और एकता दिखाई देने लगें।

दस अँगुलियों [की छाप]

पाठक: मुझे लगता है कि स्वेच्छया और अनिवार्यका भेद अब मेरी समझ में आ गया। लेकिन देखता हूँ कि दस अँगुलियों की छाप तो हमारे भाग्य में है ही। लगता है कि इसमें गरीब तो मर गये और शिक्षितों और साहूकारों की बन आई। अगर आप अब दस अँगुलियों की छाप देना पसन्द करते हैं तो पहले इसके विरुद्ध इतना सारा क्यों लिख डाला?

सम्पादक: यह प्रश्न अच्छा किया। यदि उपर्युक्त अन्तर आप अच्छी तरह समझ गये हों तो इस प्रश्नका उत्तर ऊपर आ गया है। फिर भी हम आपके प्रश्नपर विचार करें।

पहले तो दस अँगुलियों की छाप देने की बात ही नहीं रह गई; अर्थात् कानून में पूरी कौम के लिए दस अँगुलियों के निशान देने का विधान था, इसलिए वह हमारी चमड़ीपर एक दाग था। अब तो दस अँगुलियों की निशानी केवल शिनाख्त के लिए दाखिल की गई है।

दूसरी बात यह कि शिक्षित और साहूकार बच गये, यह कहना उचित नहीं है। शिक्षित मनुष्यकी और सम्पन्न तथा जाने-माने व्यक्ति की शिनाख्त उसके ज्ञान और शरीर में ही निहित है। इसलिए उनसे अँगुलियों की निशानी देने के लिए कहना अपमान कहलायेगा। इस प्रकार विचार करनेपर अनपढ़ या वे लोग जो जाने-माने नहीं हैं, अँगुलियोंकी छाप दें तो इसमें आपत्तिकी कोई बात नहीं है; बल्कि उनका पूरा-पूरा बचाव हो जाता है। उदाहरण के लिए, सभी लोग नेटाल का अविवास पत्र लेने के लिए बाध्य नहीं हैं। जाना-माना व्यक्ति ऐसे प्रमाणपत्र के बिना जा सकता

 
  1. सितम्बर १९०६ से जनवरी १९०८ तक