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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है। लेकिन यदि इसपर बहस करके कोई अनपढ़ अथवा अप्रसिद्ध व्यक्ति ऐसा करने बैठे तो वह मारा जायेगा; और वापस लौटनेमें उसे बड़ी मुसीबतें उठानी पड़ेंगी।

तीसरी बात, पहले अँगुलियोंके निशानके विरुद्ध लिखनेकी बड़ी आवश्यकता थी। इसलिए नौ महीने तक लड़ाई[१] चलनेके बाद जून मासमें[२] जब निश्चित रूपसे अँगुलियोंकी छापकी खबर मिली तब हम प्रसन्न हुए और उसके बारेमें जो कुछ पढ़ना था वह पढ़कर कौमके सामने रखा। कालरूपी---शैतानी---कानूनको धारारूपी अँगुलियोंकी छाप आदिका देह प्राप्त हुआ इससे हमें खुशी हुई। हमने देखा कि लोग कानूनका भीषण रूप अब सही-सही देख सकेंगे, और यही हुआ। धाराएँ प्रकाशित होनेके बाद ही पूरा रंग आया। हमने यह बताया कि अँगुलियाँ तो भारतमें केवल अपराधियोंसे ली जाती हैं।

उसके सम्बन्ध में हमने प्रभावपूर्ण कविताएँ छापीं: "दस अँगुलियोंकी दिये निशानी"---"जो कसम खुदाकी खाकर भी दे देगा निशानी"[३]---आदि पंक्तियोंकी ध्वनि अभीतक हमारे कानोंमें गूँज रही है।

इनमें से हम कुछ भी वापस नहीं ले रहे हैं। और जो व्यक्ति कानूनको मानकर अँगुलियोंकी छाप तो क्या, केवल जरा-सा हस्ताक्षर भी दे दे तो उसपर ये पंक्तियाँ लागू करेंगे।

पाठक: अब अँगूठा तो अँगूठा, आप तो अँगुलियोंकी छाप तक देनेकी सलाह दे रहे हैं; यह क्यों?

सम्पादक: क्योंकि अँगुलियाँ आदि तथ्य रूपी शरीरमें जबतक शैतान रूपी कानून था तब तक हम उसके विरुद्ध थे। वह शैतानी रूह शरीरमें से निकल चुकी, इसलिए अँगुलियाँ आदि तथ्य रूपी शरीरके विरुद्ध हमारा विशेष झगड़ा नहीं रहता। अब अँगुलियोंकी छाप देनेमें हम अपमान नहीं वरन सम्मान समझते हैं।

पाठक: मैं घबरा गया हूँ। जो अँगुलियोंकी छाप पहले खराब थी वह अब अच्छी हो गई है, यह बात गले नहीं उतरती। इसे और समझनेकी आवश्यकता है।

सम्पादक: आप घबरा रहे हैं, यह स्वाभाविक है। हम इन सारी बातोंका विचार कर चुके हैं, इसलिए हमें सभी बातें साधारण और सुगम लगती हैं। आपके सामने यह बात नये विचारके रूपमें आ रही है; इसलिए वह कठिन लगे बिना नहीं रह सकती। ऊपर मित्रकी और गुलामकी सेवा-चाकरीका एक उदाहरण हम दे चुके हैं। वह यहाँ भी लागू होता है। अब दूसरा उदाहरण लें। इस देशमें हम ऊँचा कोट पहनते हैं; उसमें दोष नहीं माना जाता। परन्तु अपने देशमें हम ऊँचा कोट पहनें और हमारे शरीरका नीचेका भाग दिखाई दे तो उसमें दोष है। इसलिए एक ही वस्तु एक स्थानपर उचित और दूसरे स्थानपर अनुचित कहलाती है। और फिर भारतमें दस अँगुलियोंकी छाप देना अपराधीके लिए अनिवार्य है। यही बात खूनी कानूनके अन्तर्गत थी। अब जो हमें देनी है, वह अनिवार्य नहीं है, बल्कि स्वेच्छया है। यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। इसका कारण यह है कि हम कई बार लोगोंको ऐसी सालह देते आये हैं और आगे भी देंगे। ऐसा विवेक करने में हमारी योग्यता प्रकट होती है। जब ट्रान्सवालमें अनिवार्य रूपसे तसवीर देनेकी बात चली थी तब समाजने उसका

 
  1. सितम्बर १९०६ से जून १९०७।
  2. देखिए खण्ड ७, पृष्ठ ६७।
  3. 'दस आंगळियो तणी निशानी'---'जे कसम खुदाना खाई निशानी करशे'।