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नेटालमें परवाने

कम रखें जो कि रोज-रोज बिक जाये, अथवा चट-पट किसीको दे दिया जा सके। इस प्रकार करनेपर सरकार जुर्माना करती रहे तो भी इससे उसकी दाल नहीं गलेगी। जब जुर्माना हो तब सभा करके सरकारको सूचित किया जाये कि उस मनुष्यके परवानेके बिना व्यापार करनेसे सारी कौम खुश है। ऐसा करनेसे सरकार ढीली पड़ जायेगी। परन्तु यह काम शूरवीरों और देशभक्तोंका है। जो लोग केवल अपने लिए ही जीते हैं उनकी गिनती तो पत्थरोंमें की गई है। उन्हें ऐसी बहादुरी नहीं सूझेगी। परन्तु जब सभीके अधिकारोंके लिए लड़ा जाये, तभी यह सम्भव है। फेरीवाले तो बड़ी आसानीसे सरकारको छका सकते हैं। ऐसा हो तब सरकार अनायास कानून बदलेगी। यह पक्का समझें कि ट्रान्सवालकी लड़ाईसे सभी भारतीयोंका सम्मान बढ़ा है, इसलिए सरकार चौंक पड़ेगी।

ऐसा कदम सरे-आम ही उठाना चाहिए। इसलिए इस सम्बन्धमें सभाएँ की जानी चाहिए। सरकारको प्रस्ताव भेजे जाने चाहिए। और बादमें संघर्ष शुरू किया जाये। जैसा ट्रान्सवालमें शुरू किया गया उसीका अनुसरण करें।

इसके पूर्वोदाहरण भी हैं। अंग्रेज लोग अपना माल बिक जाने देते हैं परन्तु शिक्षणका शुल्क नहीं देते। अब उनसे कोई नहीं पूछता। मरहूम श्री ब्रेडलॉ[१] अपनी युक्तियोंसे ही सारे ब्रिटिश राष्ट्रको हिला देते थे। ऐसा वे किस प्रकार करते थे, यह किसी और समय बतायेंगे।

परन्तु यह संघर्ष यदि नेटालके सज्जन करना चाहते हों तो उन लोगोंको सोच-समझकर बड़ी संख्यामें इकट्ठे होकर ऐक्य करके, खुदाको दरम्यान रखकर ठंडेपनसे आरम्भ करना चाहिए। कदम बढ़ाकर पीछे नहीं हटना है यह बात हृदयंगम कर लेनी चाहिए। कुछ भी शुरू न किया जाये, यह पहली बुद्धिमानी है। प्रारम्भ करनेके बाद हरगिज न छोड़ा जाये, यह दूसरी बुद्धिमानी है।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १५-२-१९०८
 
  1. चार्ल्स ब्रडलाँ (१८३३-९१); एक अंग्रेज मुक्त विचारक और राजनीतिज्ञ, जिन्होंने कई वर्षोंतक एनी बेसेंटके साथ काम किया और नेशनल रिफॉर्मरका सम्पादन किया; १८८० में नौर्दैम्पटनसे संसद-सदस्य चुने गये लेकिन संसदमें छः साल बाद जा पाये, क्योंकि वे संसदीय शपथ-अधिनियमके अनुसार शपथ लेना चाहते थे, बाइबिलकी शपथ नहीं। अपने नास्तिक और रुदि-विरोधी विचारोंके कारण वे उन समस्त प्रवृत्तियोंका नेतृत्व करते थे जिनकी राहमें समाज रोड़े अटकाता था।