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४२. रिचके लिए चन्दा[१]

श्री रिचके सम्बन्धमें हम गत सप्ताह लिख चुके हैं। जान पड़ता है कि सभीके मनमें श्री रिचकी कद्र करनेकी उत्कट इच्छा है। श्री रिचने सारे दक्षिण आफ्रिकाकी सेवा की है, और अब भी कर रहे हैं। इसलिए इसमें प्रत्येक भारतीयको योग देना चाहिए, ऐसा हम मानते हैं। हमें लगता है कि चन्देमें जितनी रकम हो जाये उतनी कम है। यदि हम श्री रिचको एक हजार पौंड वार्षिक देकर रखें तो भी वह अधिक नहीं कहलायेगा। हमने तो उनको केवल काम चलाने भरको ही दिया है। श्रीमती रिचकी बीमारीके समाचार मिलनेके बाद उनको घरके खर्चके लिए जितना आवश्यक हो उतना पैसा निकालनेकी अनुमति भेजी गई है। इससे पहले तो उनको केवल १५ पौंड प्रतिमास दिया जाता था। अर्थात्, उन्हें औसतन २५ पौंडसे अधिक नहीं दिये गये, ऐसा कहा जा सकता है। हम मानते हैं कि श्री रिचको कमसे-कम ३०० पौंडकी थैली भेजना अधिक नहीं होगा। यदि इससे अधिक भेजा जाये तो कुछ अनुचित न होगा। श्री रिचको सम्मानित करनेमें हमारा सम्मान है। इससे और लोग भी हमारी ओर मुड़ेंगे। यह नहीं कि पैसेके लालचसे, किन्तु हम सुसंस्कृत कौम हैं, यह समझकर। पैसेके लालचसे काम करनेवालोंसे तो हमें सदैव दूर रहना है। श्री रिचको तो इस प्रकारका खयाल भी नहीं है। जब उनमें पैसोंका लालच पैदा हो जाये तब उन्हें निकम्मा समझा जाये। इस सम्बन्धमें हम चन्दा शुरू कर रहे हैं और हम समझते हैं कि इसमें बहुत सारे भारतीय योग देंगे। ऐसा करनेमें हमारी बड़ी शोभा होगी और किसीको अधिक बोझ महसूस नहीं होगा। हमारे सैकड़ों पाठक यह संकल्प कर लेंगे तो चन्दा तुरन्त हो जायेगा। जो पैसे आयेंगे हम 'इंडियन ओपिनियन' में उनकी प्राप्ति स्वीकार करेंगे। सब लोग याद रखें कि डॉ० बूथके[२] लिए अधिकतर गरीबोंसे ही चन्दा लिया गया था। उसमें १०० पौंड जमा हुए थे, और डॉ० बूथको वह थैली तथा मानपत्र दिया गया था। डॉ० बूथका असम्मान किये बिना हम कह सकते हैं कि श्री रिचकी बराबरी करनेवाला गोरा हमें शायद ही मिला है।

[ गुजराती से ]
इंडियन ओपिनियन, १५-२-१९०८
 
  1. देखिए "रिचका महान कार्य", पृष्ठ ६३।
  2. पूज्यपाद कैनन बूथ; डर्बनमें सेंट जॉनके अध्यक्ष; गिरमिटिया भारतीयोंके बच्चोंकी शिक्षाके लिए "चर्च ऑफ इंग्लैंड मिशन" की ओरसे भारतीय विभागके प्रबन्धकर्त्ता; नेटाल भारतीय डोलीवाहक दलके चिकित्सा-अधिकारी; डर्बनके भारतीय अस्पतालमें अवैतनिक रूपसे काम किया। चन्दा वस्तुतः डॉ० बूथके लिए नहीं, बल्कि इसी अस्पतालके लिए था । देखिए खण्ड ३, पृष्ठ १५५ और आत्मकथा, भाग ३, अध्याय १०; तथा भाग ४, अध्याय २४।