पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 8.pdf/१२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

४४. द० आ० ब्रि० भा० समितिको लिखे पत्रका एक अंश[१]

फरवरी १५, १९०८

कानूनका रद किया जाना नियत लक्ष्य था और वह ईश्वरके नामपर अंगीकार किया गया था। जहाँतक मुझे मालूम है उसे पानेके प्रयत्नमें हम कभी अपने पथ से विचलित नहीं हुए। और क्या हम कमसे-कम अवधिमें और न्यूनतम क्षति उठाकर लक्ष्य तक नहीं पहुँच गये हैं?...

[ अंग्रेजीसे ]

इंडिया ऑफिस: जुडिशियल ऐंड पब्लिक रेकर्ड्स, ३७२२/०८

४५. सत्याग्रहका भेद

सत्याग्रहका सच्चा भेद बहुतसे भारतीय अबतक नहीं समझे हैं, इसलिए बड़ी गलतफहमी फैली हुई नजर आती है। इस कारण खूनी कानूनके विरोधमें प्राप्त जीतके सिलसिलेमें सत्याग्रहपर विशेष रूपसे विचार करनेकी आवश्यकता है। जो लोग सत्याग्रहको भलीभाँति समझते हैं उनके मनमें जीतके बारेमें कुछ भी उलझन पैदा नहीं होनी चाहिए।

सत्याग्रही ऐसी बहुत-सी छूट ले सकता है जो अन्य लोग नहीं ले सकते, क्योंकि सत्याग्रहीमें सच्ची मर्दानगी आ जाती है। जब उसके मनसे भय निकल गया तब वह किसीकी गुलामी नहीं करता। इस स्थितिपर पहुँचनेके बाद वह एक भी अनुचित बर्तावके आगे नहीं झुकेगा।

इस प्रकारका सत्याग्रह केवल सरकारके विरुद्ध नहीं, कौमके विरोधमें भी किया जा सकता है, और किया जाना चाहिए। सरकार उलटी चलती है, तो कई बार कौम भी उसी प्रकार टेढ़ी राह पकड़ लेती है। ऐसे अवसरपर कौमके विरुद्ध सत्याग्रहका प्रयोग करना कर्त्तव्य है। स्वर्गीय थोरोने, जिनकी पुस्तकका सार[२] हम प्रकाशित कर चुके हैं, अपनी कौमका भी विरोध किया। उन्होंने सोचा कि उनकी कौम गुलामोंको बेचनेका रोजगार करके गलत राहपर चल रही है। इसलिए उन्होंने अपनी कौमका विरोध किया। महान लूथर अकेला ही अपनी कौमके विरुद्ध खड़ा हो गया था, जिसकी बदौलत आज जर्मनी स्वतन्त्रताका उपभोग कर रहा है। गैलीलियोने अपनी कौमका विरोध किया। उसकी अपनी ही कौम

 
  1. यह पत्रांश ट्रान्सवालकी स्थितिके बारेमें एक संक्षिप्त विवरणसे लिया गया है जिसे रिचने अपने ६ अक्तूबर, १९०८ के पत्रके साथ संलग्न करके उपनिवेश-कार्यालयको भेजा था।
  2. संकेत थोरो-लिखित सविनय अवज्ञाका कर्तव्य (द ड्युटी ऑफ सिविल डिस-ओबिडिएन्स) शीर्षक लेखकी ओर है। देखिए खण्ड ७, पृष्ठ २२०-२ और २३१-३।