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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सहन करें। मैं अपनेको समझदार मानता हूँ, इसलिए सिरपर आये हुए दुःखको सहन करनेमें ही मेरी मुक्ति है। मेरा धर्म मुझे सिखाता है कि खुदाके डरको छोड़कर और कोई डर नहीं रखना चाहिए। अगर मैं ऐसा डर रखूँ तो वह खुदाके फरमानको तोड़ना होगा। तब फिर दुःखका डर क्यों मानूँ? इसलिए मैं खुदासे माँगता हूँ कि वह मुझको मृत्यु आने तक निर्भय बनाये रखे। और अपने स्नेहीजनोंसे उसी प्रकारकी प्रार्थना करनेके लिए कहता हूँ।

उपचार

जब मुझे कुछ होश आया तब लोग मुझे जहाँ मार पड़ी थी उसके सामने स्थित श्री गिब्सनके दफ्तरमें ले गये। श्री ल्यू[१] और छोटे गिब्सन साहबने उपचार किया। डॉक्टरने जख्म धोये। जब अस्पतालमें ले जानेकी बात चल रही थी तब श्री डोक, जो पादरी हैं और जिन्होंने हमें [संघर्ष के] आखिरी दौरमें बहुत सहायता की है, मारकी बात सुनकर दौड़े आये। उन्होंने मुझको अपने यहाँ ले जानेका प्रस्ताव किया। कुछ विचार करनेके बाद मैंने उसे मान लिया। श्री डोककी उम्र लगभग छियालीस वर्षकी होगी; वे बैप्टिस्ट पंथके ईसाई हैं। उन्होंने न्यूजीलैंड, भारत, वेलेस्टाउन[२] आदि देशोंमें बहुत यात्रा की है। तीन महीने हुए वे ग्राहम्स-टाउनसे यहाँ आये हैं। उनकी शुश्रूषा एवं उनके अपने तथा कुटुम्बके स्वभावको देखते हुए वे सन्त पुरुष ही कहलायेंगे। वे मेरे खास मित्र नहीं हैं। मैं मुश्किलसे तीन-चार बार उनसे मिला था। वह भी लड़ाईके सिलसिलेमें, तथा उनका समाधान करनेके लिए। इसलिए उन्होंने एक पराये मनुष्यको अपने घरके अन्दर दाखिल किया। घरके सभी व्यक्ति तत्परतासे मेरी सेवामें लगे रहे। उन्होंने अपने लड़केकी कोठरी मुझे सौंप दी। और अपने पुत्रको पुस्तकालयमें फर्श पर सुलाते रहे। जबतक मैं बीमार रहा तबतक वे सारे घरमें जरा भी आवाज नहीं होने देते थे। बच्चे भी बहुत ही धीरे चलते-फिरते और आते-जाते थे। श्री डोक स्वयं मेरा मल-मूत्र उठाकर ले जाते और उन बर्तनोंको साफ करते थे। और मुझे यह देखते रहना पड़ता था। पट्टी बाँधने और साफ करने आदिका सब काम श्रीमती डोकने उठा लिया था। जो काम मैं खुद कर सकूँ सो भी मुझे नहीं करने देते थे। पहली रातको पति-पत्नी दोनों ही सारी रात जागते रहे, और कदाचित् मुझे कुछ जरूरत पड़ेगी, इस विचारसे मेरी कोठरीमें आते-जाते रहे। जो लोग मुझसे मिलने आते श्री डोक अपना सवेरेका समय उनका सत्कार करनेमें लगाते थे। लगभग पचास भारतीय रोज आते थे। श्री डोक घरमें हों तबतक भारतीयोंको वे गन्दे हैं या साफ इस बातपर ध्यान दिये बिना बैठकमें ले जाते, आदरसे बिठाते और मेरे पास ले आते थे। साथमें यह भी सबको धीरेसे समझाते थे कि वे मुझे अधिक कष्ट न दें। इस प्रकार उन्होंने मेरी सेवा-शुश्रूषा की। मेरी और मिलने आनेवालोंकी खातिरदारी की। इतना ही नहीं, कौमके कष्टोंके सम्बन्धमें जो-कुछ आवश्यक हो सो भी वे करते रहे। फिर वे श्री कार्टराइट, श्री फिलिप्स[३], आदिसे मिलनेकी फिक्र रखते थे, मेरे संदेश ले जाते थे और जो-कुछ करना उचित हो वह अपने-आप किया करते थे।

 
  1. युक लिन ल्यू, ट्रान्सवालमें चीनके महावाणिज्य दूत। खण्ड ६, पृष्ठ १४ भी देखिए।
  2. जान पड़ता है, मूलमें भूलसे पैलेस्टाइनके लिए यह शब्द छप गया था।
  3. चार्ल्स फिलिप्स, कांग्रिगेशनल गिरनेके पादरी; देखिए दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास,अध्याय २३।