पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 8.pdf/१३२

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४८. संक्षेपमें स्पष्टीकरण[१]

सब जानते हैं कि इस अखबारमें मेरे लेख कई जगह रहा करते हैं। फिर भी आम तौरसे पाठक हमेशा यह नहीं बता सकेंगे कि कहाँ मैंने लिखा है, और कहाँ और लेखकोंने। इस लेखको मैं अपने हस्ताक्षरसे इसलिए दे रहा हूँ, ताकि यह समझा जा सके कि इसके विचार खास मेरे अपने हैं।

अब सरकारके साथ हुई सुलहपर होनेवाली चर्चाएँ प्रायः बन्द हो गई हैं। लोग अधिक समझने लगे हैं और उस हद तक वे शान्त हुए जान पड़ते हैं। फिर भी अभी बातचीत होती रहती है। नेटालसे मेरे नाम बड़े रोषपूर्ण पत्र आये हैं। कुछमें मुझे गाली तक दी गई है। इससे पता चलता है कि हमारी स्थिति अब भी बड़ी दयनीय है। मेरे मनपर गालीका कुछ भी असर नहीं है। किन्तु इससे जाहिर होता है कि भावनाएँ किस हद तक उत्तेजित हो रही हैं।

समझौतेके खिलाफ यह जो विवाद छिड़ा हुआ है वह कुछ लोगोंके लिए तो केवल बहाना ही है, ऐसा भी मेरे देखनेमें आ रहा है; लेकिन इसकी तहमें हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच अनबन पैदा करानेका इरादा है। मैं समझता हूँ कि मेरे लिए दोनों कौमें एक-सी हैं। देशसेवा करनेमें हिन्दू और मुसलमान एक और साथ-साथ हैं। फिर भी मैं देख पाया हूँ कि हिन्दुओंने मुझे दोष नहीं दिया है, और वे भरोसा करते हैं कि समझौता ठीक हुआ है। उलाहनेके जितने पत्र आये हैं वे केवल मुसलमानोंकी ओरसे आये हैं। इसका क्या कारण है, यह सोचनेकी आवश्यकता है। इस बातको लिखनेमें मुझे संकोच हो रहा है। फिर भी जो बातें कई लोगोंके मुँहसे निकलती रहती हैं और जिनके सम्बन्धमें चर्चाएँ होती रहती हैं, उनको छिपाना कतई ठीक नहीं है। यही नहीं, इस तरह छिपाना अन्तमें हानिप्रद हो सकता है।

जब सत्याग्रह जोरोंपर था तब श्री अली[२] मेरे हिन्दू होनेके कारण मुझपर पूरा-पूरा विश्वास नहीं कर सके। इसलिए उन्होंने श्री अमीर अलीके[३] नाम तार भेजा। इस समय कई मुसलमानोंने श्री जिन्नाके नाम तार करनेकी बात सोची थी, और अन्तमें पठानोंने तो तार

 
  1. इंडियन ओपिनियनमें यह "श्री गांधीका एक पत्र", शीर्षकसे प्रकाशित किया गया था।
  2. हाजी वजीर अली; १८५३ में मारीशसमें भारतीय तथा मलायी माता-पितासे उत्पन्न हुए थे; डच, अंग्रेजी और हिन्दुस्तानी भाषाएँ धारा -प्रवाह बोलते थे; १८८४ में दक्षिण आफ्रिकामें आये और पूर्ण रूप से भारतीयोंके हित-साधनमें लग गये। उन्होंने मताधिकार कानून संशोधन अधिनियमके खिलाफ चलाये गये आन्दोलनमें प्रशंसनीय कार्य किया। १८९२ में केपके रंगदार लोगोंके संगठनके अध्यक्ष चुने गये थे; हमीदिया इस्लामिया अंजुमनके संस्थापक थे और अध्यक्ष रहे; १९०६ में इंग्लैंड भेजे गये; ट्रान्सवाली भारतीय प्रतिनिधि मण्डलके गांधीजीके साथ सदस्य थे; देखिए खण्ड ६। उन्होंने न तो सत्याग्रह आन्दोलनमें भाग लिया और न एशियाई पंजीयन अधिनियमको ही मंजूर करना चाहा; इसलिए १९०७ में वे अपने विशाल हितोंको छोड़ ट्रान्सवाल त्यागकर चले गये। देखिए खण्ड ७, पृष्ठ २०७।
  3. सैयद अमीर अली (१८४९-१९२८); प्रिवी कौंसिलकी न्याय -समितिके सदस्य कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, १८९०-१९०४; इस्लाम तथा मुस्लिम कानून और इस्लाम धर्म सम्बन्धी कई पुस्तकोंके लेखक। हाजी वजीर अलीने जुलाई १९०७ में अमीर अलीको, जो उन दिनों द० आ० वि० भा० समितिके सदस्य थे, एक पत्र लिखा था। उसमें उन्होंने गांधीजी द्वारा एशियाई पंजीयन अधिनियमके खिलाफ आंदोलन जारी रखनेसे विरोध प्रकट करते हुए लिखा था कि उससे "मेरे हजारों सहधर्मी, जो सबके-सब व्यापारी हैं, न कि हिन्दुओं की तरह अधिकांशतः फेरीवाले", बरबाद हो जायेंगे। उन्होंने सत्याग्रह आंदोलनको रोकनेके लिए समितिके हस्तक्षेपकी माँग की थी। देखिए खण्ड ७, पृष्ठ १२४-५।