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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सुगन्धको हम आँखोंसे नहीं देख सकते। मैं किसीके यहाँ गया, वहाँ मेरा सम्मान हुआ या अपमान हुआ, इतना ही मैं कह सकता हूँ। परन्तु कई बार यह बताना सम्भव नहीं होता कि किस बातमें सम्मान था और किसमें अपमान। एक-से ही दिखनेवाले दो मोती रखे हों और उनमें एक सच्चा हो और दूसरा झूठा तो उसकी परख जौहरी ही करेगा, और वही हम मानेंगे। अनुभवके बलपर कानूनोंके बारेमें मैं अपनेको कुछ-कुछ जौहरी मानता हूँ। मैंने खूनी कानून पढ़ा, उसी घड़ी मेरे रोंगटे खड़े हो गये, और उसमें मुझे दुर्गन्ध आई। उस कानूनको बनाने का तर्ज ऐसा था कि वह हम लोगोंको गुलाम ही बना दे। वह हम लोगोंपर और दुःख आनेका श्रीगणेश था। हमपर इस प्रकारका कानून सदाके लिए लागू हो जाये, इसमें सारी दुनियामें हमारे कलंकित होने जैसी बात थी। वह कानून हमपर सिरजोरी करके पूरीकी-पूरी कौमको चोर ठहराकर बनाया गया था। इसलिए उस कानूनके मातहत हम लोगोंको लाखोंका लाभ हो तो वह भी हरामके बराबर था। वह कानून कोई पराया व्यक्ति पढ़े तो यही समझेगा कि ऐसा कानून स्वीकार करनेवाले लोग गुलाम होने चाहिए। उसमें मर्दानगीका लोप हो जाता था और विशिष्ट धर्मका अपमान होता था। उसमें हमारे बच्चोंको भी दीन-हीन बनानेकी बात थी। वह कानून अमलमें आता तो बस्ती-बाड़े हमारे मत्थे मढ़ दिये जाते। इन सारी बातोंमें दस अँगुलियोंकी बात कोई मूल्य नहीं रखती। मैं जानता हूँ कि ऊपरकी बातका भेद न समझ सकनेवाले व्यक्ति निकल आयेंगे। परन्तु हम लोग दीर्घकालसे गुलामीकी स्थिति में हैं इस कारण आजादीको नहीं पहचान पाते। लाटूसको अनेक वर्षों तक अँधेरी कोठरीमें बंद रखनेके बाद जब बाहर निकाला गया, तब उससे सूर्यका प्रकाश सहन नहीं हो सका, और उसने दुबारा कोठरीमें बंद होनेके लिए प्रार्थनापत्र दिया। इस प्रकार हम लोग भी अँधेरी कोठरीमें पड़े हुए होनेके कारण प्रकाशको सहन नहीं कर पा रहे हैं।

क्या अँगुलियाँ और जगह भी [दाखिल की] जायेंगी?

मैं तो मानता हूँ कि बहुत-सी जगहपर अँगुलियाँ दाखिल होंगी। मैं इसमें कोई आपत्ति नहीं देखता। दारोमदार, वे किस प्रकार दाखिल होंगी, इस बातपर है। मुझपर कोई वस्तु जबरदस्ती आ पड़ेगी, इस डरसे क्या मैं अपनी मर्जी न रखूँ? मेरा मित्र आगे चलकर मुझपर ज्यादती करेगा, इस आशंकासे क्या मैं उसकी बीमारीके समय उसकी पूरी सेवा न करूँ? मैंने जेलमें स्वेच्छासे पाखाना उठाया। किसीने मुझे इसके लिए बाध्य नहीं किया था, और अगर मुझे बाध्य किया जाता तो अधिकारियोंको खरा जवाब मिलता। बाध्य होना पड़ेगा, इस डरके मारे अच्छा काम करने की बात अपनाना मैं नपुंसकता समझता हूँ।

अब बस हो गया। उपर्युक्त दलीलें इस रूपमें नहीं तो और रूपमें पहले भी दी गई हैं। उन्हें बराबर समझना है, और समझ लेनेपर मनमें निश्चय करना है कि हिन्दू-मुसलमान एक साथ ही रहेंगे। घड़ी-घड़ी बहक नहीं जाना चाहिए। सोच समझकर कदम रखेंगे। दुःसाहस नहीं करेंगे। इस प्रकारके बरतावसे ही एक राष्ट्र बनेंगे, और आगे बढ़ेंगे। नहीं तो हवाका जरा-सा झोंका लगते ही छोटे-मोटे बादलोंकी तरह हम छिन्न-भिन्न हो जायेंगे और फिर न तीनमें रहेंगे और न तेरहमें।

मोहनदास करमचन्द गांधी

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २९-२-१९०८