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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

साथ नहीं है, सुधार करना लॉर्ड एलगिनको आवश्यक प्रतीत होता है; और इसलिए विदेश कार्यालयके साथ वे लिखा-पढ़ी कर रहे हैं।

इसका अर्थ

लॉर्ड एलगिन साहबका पत्र अत्यन्त निराशाजनक है। उनके विचारके अनुसार तो इसका अर्थ यह हुआ कि ट्रान्सवालका कानून केप तथा नेटालके कानूनकी अपेक्षा कहीं अधिक कठोर है। केप और नेटालके कानूनके अनुसार सामान्य अंग्रेजी शिक्षा-प्राप्त भारतीय दाखिल हो सकता है, किन्तु ट्रान्सवालके कानूनके मुताबिक वैसे भारतीयपर भी परोक्ष रूपसे प्रतिबन्ध लग जाता है। तिसपर भी एलगिन साहब कहते हैं कि कानूनमें कोई नई बात नहीं है। फिर खण्ड ६ (ग) में विशेष रूपसे भारतीयोंको देशसे बाहर करनेकी बात है। उसे भी एलगिन साहब पसन्द करते हुए जान पड़ते हैं। इसका अर्थ यह है कि यदि भारतीय किसी कानूनका विरोध करें और यदि उस कानूनको स्वीकार करानेके लिए फाँसी तक की सजा देनेका अधिकार आवश्यक जान पड़े तो लॉर्ड एलगिन उसे मंजूर कर लेंगे। जहाँ बाहरी राज्योंके बीचमें आनेका प्रश्न है वहाँ एलगिन साहब उस खण्डमें तो संशोधन करने की बात कहते हैं और उस प्रकारका संशोधन करनेका वचन भी वे जनरल स्मट्ससे ले चुके हैं। यदि भारतीय समाज ईश्वर और अपने बलपर लड़े बिना रह गया होता, तो लॉर्ड एलगिनका पत्र पढ़नेके बाद कौन ऐसा कह सकता है कि उसकी धज्जियाँ नहीं उड़ गई होतीं। जरा देखिए कि विदेशी प्रजाके विषयमें उक्त महोदयको कितनी चिन्ता है। हम लोगोंमें कहावत है कि "भय बिन होय न प्रीत"। मैं नहीं मानता कि यह कहावत ज्यादातर सही होती है, किन्तु लॉर्ड एलगिन विषयमें तो यह शब्दश: सही है।

लॉर्ड एलगिनका विदेश कार्यालयके नाम पत्र

लॉर्ड एलगिन खण्ड ६ (ब) के विषयमें सर एडवर्ड ग्रेका विचार जानना चाहते हैं। यह उपखण्ड उस मनुष्यको देश-निकालेका अधिकार देता है जिसे स्थानीय सरकार विद्रोही मान ले। इस उपखण्डसे ब्रिटिश प्रजा और अन्य प्रजाके ऊपर बहुत जोखिमसे भरा हुआ अधिकार मिल जाता है। यह ठीक है कि ब्रिटिश बेचुआना लैंड और दूसरे स्थानोंमें, जहाँ यह कानून बड़ी विषम परिस्थितिमें और लड़ाईके अन्तमें बनाया गया था, ऐसी सत्ता दी गई है। किन्तु स्वराज्यका उपभोग करनेवाले उपनिवेशमें इस प्रकारके कानूनोंको लागू करना देखनेमें नहीं आता। इस प्रकारके कानूनके विरुद्ध अन्तः परिषद (प्रिवी कौंसिल) ने भी बहुत आलोचना की है। इसके सिवा शान्ति-रक्षा अध्यादेशमें जबरदस्ती सीमासे बाहर करनेकी सत्ता थी ही नहीं। फिर १८९६ में भूतपूर्व अध्यक्ष क्रूगरकी सरकारने विदेशियोंके देश-निकालेका जो कानून बनाया था, उसे बड़ी सरकारने रद कर दिया। इसलिए लॉर्ड एलगिनने सोचा है कि प्रवासी कानून पास करानेके साथ यह शर्त भी रखी जाये कि उस खण्डमें परिवर्तन हो।

टीका

इस पत्र और श्री मॉर्लेके नाम लिखे गये पत्रमें कितना बड़ा अन्तर है! यदि लॉर्ड एलगिन भारतीय समाजसे भयभीत हैं, तो ऊपर जो दलीलें दी गई हैं, भारतीयोंके विषयमें उनसे अधिक जोरदार दलीलें दी जा सकती थीं। उदाहरणके लिए, १८९६ में श्री क्रूगरके